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________________ ३०२ नियुक्तिपंचक १७७. लोक के विषय में कहा जा चुका है।' विजय शब्द के छह निक्षेपों में नामविजय तथा स्थापनाविजय के अतिरिक्त शेष चार निक्षेप इस प्रकार हैं द्रव्यविजय-द्रव्य से विजय । क्षेत्रविजय-क्षेत्र पर विजय । भरत का छह खंडों पर विजय पाना । कालविजय-जितने समय या काल में विजय प्राप्त की जाती है। जैसे-भरत ने साठ हजार वर्षों में भारत पर विजय प्राप्त की। भावविजय-औदयिक आदि भावों पर विजय । प्रस्तुत में भवलोक अर्थात भावलोक पर भावविजय का प्रसंग है। यहीं प्राणिगण आठ प्रकार के कर्मों से बंधता है तथा मुक्त होता है। १७८. प्राणी कषायलोक से पराजित है, इसलिए उससे निवर्तित होना श्रेयस्कर है। साथसाथ जो 'काम' से निवर्तित होता है, वह शीघ्र ही संसार से मुक्त हो जाता है। १७९. गुण के पन्द्रह निक्षेप हैं-नामगुण, स्थापनागुण, द्रव्यगुण, क्षेत्रगुण, कालगुण, फलगुण, पर्यवगुण, गणनागुण, करणगुण, अभ्यासगुण, गुण-अगुण, अगुण-गुण, भवगुण, शीलगुण तथा भावगुण । १८०. स्वयं द्रव्य ही द्रव्यगुण है क्योंकि गुणों का (अस्तित्व) गुणी में संभव होता है । द्रव्य के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त तथा मिश्र । इनके अपने-अपने गुण स्वयं में तादात्म्य भाव से अवस्थित हैं। १८१. संकुचित होना, विकसित होना-ये जीव के आत्मभूत गुण हैं । वह अपने बहुप्रदेशात्मक गुण के कारण समुद्घात के समय संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। १८२. क्षेत्र आदि गुणों का विवरण इस प्रकार है-- १. क्षेत्रगुण - देवकुरु, उत्तरकुरु आदि भूमियों का गुण (जैसे- वहां के मनुष्य अवस्थित यौवन वाले, निरुपक्रम आयुष्य वाले, स्वभाव से ऋजु, मृदु होते हैं। २. कालगुण -भरत, ऐरवत आदि क्षेत्रों में एकांत सुषमा आदि तीनों कालों में सदा यौवन आदि की अवस्थिति । ३. फलगुण - रत्नत्रयी की आराधना का अनाबाध सुख-सिद्धिरूपी फल । ४. पर्यवगुण-पर्याय का गुण है-निर्भजना-निश्चित विभक्त होते जाना। ५. गणनागुण-एक, दो आदि से इयत्ता का अवधारण । ६. करणगुण-कला-कौशल । १. लोक शब्द की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति के के दो गुण हैं-अमूर्तत्व तथा अगुरुलघुपर्याय । चतुर्विशतिस्तव में की जा चुकी है। ये सभी अरूपी द्रव्यों में मिलते हैं। रूपी २. जैसे - सचित्त द्रव्य अथवा जीवद्रव्य का । द्रव्य का गुण हैं-मूर्त्तत्व । यह सभी रूपी लक्षण है-उपयोग। उससे पृथक् अन्य में द्रव्यों में मिलेगा। इस प्रकार द्रव्य और गुण ज्ञान आदि गुण नहीं मिलते। अचित्त द्रव्य के का तादात्म्य है। दो भेद हैं-रूपी और अरूपी। अरूपी द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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