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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ४ शीत परीषह राजगृह नगरी में चार वणिक् मित्र थे। वे बचपन से एक साथ खेले तथा बड़े हुए। एक बार भद्रबाहु स्वामी की देशना सुनकर चारों मित्र उनके पास दीक्षित हो गए। अनेक शास्त्रों का सम्यक् अध्ययन करने के पश्चात् उन्होंने एकलविहार प्रतिमा स्वीकार की। . एक बार विहार करते हुए वे पुन: राजगृह नगरी में आए। उस समय हेमंत ऋतु थी। कड़ाके की सर्दी थी। चारों मुनि दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षा लेकर पुन: वैभारगिरि पर्वत की ओर आने लगे। पहला मुनि जब गुफाद्वार तक पहुंचा तब चौथा प्रहर प्रारंभ हो गया, इसलिए वह वहीं प्रतिमा में स्थित हो गया। इसी प्रकार दूसरा मुनि उद्यान में, तीसरा उद्यान के समीप, चौथा नगर के पास वे चारों मुनि प्रतिमा में स्थित हो गए। गुफा के निकट ठहरे मुनि को अबाध शीत परीषह पीड़ित करता रहा। मुनि ने मेरु पर्वत की भांति दृढ़ मनोबल से उसे सहन किया और रात्रि के प्रथम प्रहर में ही स्वर्गस्थ हो गया। उद्यान में ठहरा मुनि शीत के कारण रात्रि के द्वितीय प्रहर में, उद्यान के समीप ठहरा मुनि रात्रि के तीसरे प्रहर में तथा नगर-द्वार पर प्रतिमा में स्थित मुनि रात्रि के चौथे प्रहर में स्वर्गस्थ हुआ क्योंकि उसे नगर की उष्मा बचा रही थी। इस प्रकार चारों मुनि शीत परीषह को समतापूर्वक सहकर सद्गति को प्राप्त हुए। ५. उष्ण परीषह (अर्हन्नक) तगरा नगरी में अर्हन्मित्र नामक आचार्य विहार कर रहे थे। एक बार दत्त नामक वणिक् अपनी पत्नी भट्टा तथा पुत्र अर्हन्नक के साथ आचार्य अर्हन्मित्र के पास दीक्षित हुआ। दत्त मुनि स्नेहवश अपने पुत्र को कभी भिक्षा के लिए नहीं भेजता था। आहार आदि के समय भी मन इच्छित आहार करवाता था। वह बालमुनि बहुत सुकुमार था लेकिन अन्य साधुओं को यह व्यवहार बहुत अखरता था। पर साधु कुछ कह नहीं सकते थे। कालान्तर में दत्त मुनि स्वर्गस्थ हो गए। साधुओं ने दो तीन दिन बाद ही मुनि अर्हन्नक को भिक्षा के लिए भेज दिया। सुकुमार होने के कारण ग्रीष्मऋतु के आतप से वे ऊपर, नीचे और । पार्श्व से झुलसने लगे। उस दिन वे प्यास से व्याकुल होकर छाया में विश्राम के लिए ठहरे। एक विरहिणी स्त्री ने उन्हें देखा। उसका पति परदेश गया हुआ था। मुनि के सुकुमार और सुन्दर शरीर को देखकर वह स्त्री उसमें आसक्त हो गयी। स्त्री ने दासी द्वारा मुनि को ऊपर बुलाया। महिला ने पूछा-'मुनिवर ! आपको क्या चाहिए?' मुनि ने उत्तर दिया-'मुझे केवल भिक्षा चाहिए।' स्त्री ने भिक्षा में पर्याप्त लड्डू बहराए। पुनः उसने पूछा-'आप इस दुष्कर व्रत का पालन क्यों करते हैं?' मुनि ने सहजता से उत्तर दिया-'सुख के लिए।' यह सुनकर स्त्री ने स्नेहयुक्त दृष्टि से मुनि को देखते हुए कहा-'यदि सुख चाहते हो तो मेरे साथ रहो और भोगों का उपभोग करो। इस दुष्कर चर्या का तो जीवन की अंतिम अवस्था में पालन कर लेना।' यह बात सुन गर्मी से व्याकुल मुनि श्रामण्य से च्यत हो गया। अब वह उस स्त्री के साथ भोग भोगने लगा। साधुओं ने सभी स्थानों पर १. उनि.९२, उशांटी.प.८९, उसुटी.प. २०। Jain Education International For Private & Personal use.Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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