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________________ १९२ नियुक्तिपंचक ६१.प्रत्ययज्ञान का कारण बहुविध होता है। वह छद्मस्थ के होता है। केवली का ज्ञान निवृत्ति प्रत्यय-निरालम्ब होता है। (केवली के ज्ञान की उत्पत्ति ही उसके ज्ञान का कारण है, घट पट आदि बाह्य सामग्री नहीं) छदमस्थ के ज्ञान में उभयसम्बन्धनसंयोग होता है। वर्तमान जन्म में देह जीव से सम्बद्ध है और अन्य जन्म में जीव द्वारा त्यक्त है । इसी प्रकार माता, पिता, पुत्र आदि में भी उभयसम्बन्धसंयोग होते हैं। ६२. कषायबहलजीव के संबंधनसंयोग होता है। जो जीव समर्थ है अथवा असमर्थ-दोनों में यह संयोग होता है क्योंकि दोनों में 'यह मेरा है'-यह ममकार समान होता है। ६३. संसार से अनुत्तरण और उसमें अवस्थान का कारण है-संबंधनसंयोग । माता, पिता, बेटा आदि के संबंधनसंयोग का छेदन कर अनगार मुक्त हो जाते हैं। ६४. संबंधनसंयोग क्षेत्र आदि के भेद से तथा आदेश-अनादेश आदि विभाषा-भेदों से प्रतिपादित किया गया है। प्रस्तुत पहली गाथा में क्षेत्र आदि संबंधनसंयोग ही सूचित है। उसकी ही यहां विवेचना करनी चाहिए। ६५. गंडी-अमार्ग में कूदते हुए चलने वाला, गली-बिना श्रम ग्लान होने वाला, मरालीलात मारने वाला, रथ में जोतने पर बार-बार जमीन पर बैठने वाला ये अविनीत अश्व और बैल के एकार्थक है । आकीर्णक, विनीत और भद्र-ये विनीत अश्व और बैल के एकार्थक शब्द हैं। दूसरा अध्ययन : परीषह प्रविभक्ति ६६,६७. परीषह के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । द्रव्य परीषह के दो प्रकार हैं-आगमत: और नो-आगतमतः । नो-आगमतः के तीन प्रकार हैं-ज्ञशरीर, भव्यशरीर तथा तव्यतिरिक्त । तद्व्यतिरिक्त के दो प्रकार हैं-कर्म तथा नोकर्म । कर्म के रूप में है-परीषह वेदनीय कर्म के उदय का अभाव । ६८. नोकर्म के तीन प्रकार हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । भाव परीषह है-कर्म का उदय । उसके ये द्वार-व्याख्येय संदर्भ हैं। ६९. परीषह कहां से उद्धृत हैं ? किस संयती के होते हैं ? किस द्रव्य से पैदा होते हैं ? किस पुरुष या कर्म-प्रकृति में ये संभव हैं ? इनका अध्यास-सहन कैसे होता है ? कौन से नय से कौन सा परीषह वर्णित है ? एक साथ एक व्यक्ति में कितने परीषह होते हैं ? परीषहों का अस्तित्वकाल कितना है ? किस क्षेत्र में कितने परीषह होते हैं ? उद्देश का अर्थ है-गुरु का सामान्य उपदेश । पृच्छा का अर्थ है-शिष्य की जिज्ञासा। निर्देश का अर्थ है-गुरु द्वारा शिष्य की जिज्ञासा का समाधान । सूत्रस्पर्श का अर्थ है-सूत्र में सूचित अर्थ-वचन-ये सारे व्याख्या-द्वार हैं। ७०. कर्मप्रवादपूर्व के सतरहवें प्राभत में गणधरों द्वारा ग्रथित श्रत को नय और उदाहरण सहित यहां प्रस्तुत जान लेना चाहिए। यह परीषह अध्ययन वहीं से समुद्धृत है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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