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उत्तराध्ययन नियुक्ति
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४८. सदृश ज्ञान-चारित्रगत आदेश (विशेष) के अनेक प्रकार बताए जा चुके हैं। स्वामित्व तथा प्रत्यय (ज्ञान का कारण) के विषय में कुछ आगे बताया जाएगा।
४९. भाव विषयक अनादेश के छह प्रकार हैं-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक।
५०. भाव विषयक आदेश के दो प्रकार हैं-अर्पित व्यवहार' और अनर्पित व्यवहार'। प्रत्येक के तीन-तीन प्रकार हैं-स्व, पर और तदुभय ।
५१. आत्मसंयोग (स्वसंयोग) चार प्रकार का होता है-औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक तथा पारिणामिक ।
५२. जो सान्निपातिक भाव औदयिकभाव से रहित होता है, वह ग्यारह संयोगात्मक होता है, यही आत्मापितसंयोग है।
५३. लेश्या, कषाय, वेदना, वेद, अज्ञान, मिथ्यात्व, मिश्र आदि जितने भी औदयिक परिणाम हैं, वे सारे बाह्यापितसंयोग हैं।
५४. जो सान्निपातिक भाव औदयिकभाव से मिश्रित होता है, वह पन्द्रह संयोगात्मक होता है। वह सारा उभयापितसंयोग है।
५५. इसके प्रतिपादन का दूसरा आदेश-प्रकार भी है । उसके अनुसार संयोग तीन प्रकार का है-आत्मसंयोग, बाह्यसंयोग और तदुभयसंयोग । इसका मैं संक्षेप में कथन कर रहा है।
५६. आत्मसंयोग छह प्रकार का है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिक ।
५७. बाह्यसंयोग तीन प्रकार का है-नामसंयोग, क्षेत्रसंयोग तथा कालसंयोग । आत्मसंयोग और बाह्यसंयोग के मिश्रण से तदुभयसंयोग होता है।
५८. प्रकारान्तर से आचार्य-शिष्य, पिता-पुत्र, जननी-पुत्री, भार्या-पति, शीत-उष्ण, तमउद्योत, छाया-आतप आदि का पारस्परिक संबंध बाह्यसंबंधनसंयोग है।
५९. आचार्य के सदश आचार्य ही हो सकता है, अनाचार्य नहीं। आचार्य के सभी सामान्य गुणों से जो सदश है, वह शिष्य होता है। अथवा जो शिष्य के सभी गुणों से अन्वित होता है, वह शिष्य होता है।
६०. ज्ञान का ज्ञेय के साथ, चारित्र का चर्यमाण के साथ, स्वामी का सेवक के साथ, पिता का पुत्र के साथ - ये लौकिक संबंध हैं । लोकोत्तर सम्बन्ध जैसे-मेरे कुल में अमुक साधु है और मैं इसके कुल में हं इत्यादि । ये सारे उभयसम्बंधनसंयोग हैं।
१. अर्पित अर्थात विवक्षित, जैसे क्षायिक आदि भाव की ज्ञाता में विवक्षा करना।
२. अनर्पित अर्थात् अविवक्षित, जैसे क्षायिक भाव
में सब भाव होते हुए भी अनर्पित हैं।
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