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________________ ५०२ नियुक्तिपंचक शकडाल राजा के चरणों में गिर पड़ा। रोष से राजा ने अपना मुंह फेर लिया। मंत्री ने जैसे ही तालपुट विष मंह में लिया श्रीयक ने अपने पिता शकडाल का शिरच्छेद कर दिया। सभा में हाहाकार मच गया। राजा ने कहा-'यह क्या किया?' श्रीयक ने कहा-'देव! यह आपकी आज्ञा का अतिक्रमण करने वाले हैं इसीलिए चरणों में गिरने पर भी आप इन पर प्रसन्न नहीं हुए। मैं राजा का अंगरक्षक हूं अतः जो राजा की आज्ञा का उल्लंघन करता है वह चाहे पिता ही क्यों न हो, मुझे नहीं चाहिए। आपने मुझे ऐसे स्थान पर नियुक्त किया है अत: मुझे यह करना पड़ा।' राजा ने सोचा- ऐसे निस्पृह लोगों के बारे में भी लोग अन्यथा सोचते हैं। निश्चित ही यह वररुचिकृत प्रपंच है। ओह ! मैंने कैसा अकार्य कर डाला जो शकडाल जैसे मंत्री की उपेक्षा करता रहा। अब मैं श्रीयक को मंत्रीपद पर स्थापित करूंगा। राजा बोला-'श्रीयक! विषाद मत करो। मैं तुम्हारे सारे कार्य संपादित करूंगा।' इस प्रकार आश्वासन देकर राजकीय वैभव के साथ शकडाल का अग्नि-संस्कार किया गया। शकडाल की मृत्यु के पश्चात् नंद ने श्रीयक को मंत्री-पद स्वीकार करने के लिए कहा। श्रीयक ने कहा-'मेरे बड़े भाई बारह वर्षों से कोशा के यहां हैं अत: पहले आप उनसे पद-ग्रहण करने के लिए कहें।' स्थूलिभद्र को मंत्रीपद देने के लिए बुलाया गया तो उन्होंने कहा कि मैं चिन्तन करूंगा। स्थूलिभद्र अशोक-वाटिका में जाकर चिंतन करने लगे। उन्होंने चिंतन किया कि ये कामभोग मूर्ख और विक्षिप्त व्यक्तियों के लिए हैं। इनसे व्यक्ति नरक की यातनाएं भोगता है। संसारअटवी में परिभ्रमण करता है। कामभोग आपातभद्र और परिणाम-विरस होते हैं । ऐसा सोचकर उसी समय पंचमुष्टि लोच कर वे प्रव्रजित हो गए और ओढ़े हुए कम्बल को फाड़कर उसका रजोहरण बना लिया। दीक्षित होकर स्थूलिभद्र राजा के पास आए। राजा ने उनके चिन्तन की सराहना की। मुनि स्थूलिभद्र महल से बाहर जाने लगे। राजा के मन में शंका उभरी कि यह मुनि तो बन गया है पर वेश्या से मोह नहीं छूटा होगा अतः राजा ने प्रासाद के ऊपरी भाग पर चढ़कर देखा लेकिन स्थूलिभद्र तो पूर्ण विरक्त हो गए थे। वे चले जा रहे थे। रास्ते में एक मृत कलेवर पड़ा था। स्थूलिभद्र मुनि समभाव से उसके पास से गुजर गए। राजा ने सोचा कि लोग मृत कलेवर से दूर हटकर चल रहे हैं। अपने नाक को ढंक रहे हैं पर स्थूलिभद्र मुनि समभाव से चल रहे हैं। निश्चित ही इनमें विरक्ति प्रगाढ़ हैं तब राजा ने छोटे भाई श्रीयक को मंत्री बना दिया। श्रीयक भाई के स्नेह से कोशा वेश्या के पास गया पर वह स्थूलिभद्र के अतिरिक्त किसी पर अनुरक्त नहीं हुई। कोशा की छोटी बहिन का नाम उपकोशा था। वररुचि उसके साथ रहता था। श्रीयक वररुचि का छिद्रान्वेषण करने लगा। वह अपनी भोजाई कोशा से बोला-'इस वररुचि के कारण पिता की मृत्यु तथा भाई का वियोग हुआ है। तेरा भी स्थूलिभद्र से वियोग हो गया। अब तुम इसको कभी सुरापान कराना।' तब कोशा ने उपकोशा से कहा-'तुम सुरापान कर मत्त हो जाना। यह वररुचि अमत्त रहेगा। तुम मदिरा पिलाना चाहोगी फिर भी वह अयथार्थ प्रलाप करेगा। लेकिन तुम उसे सुरा पिला देना।' दूसरे दिन उपकोशा ने उसे सुरा पिलाना चाहा। वररुचि ने आनाकानी की। वह बोली-'अब तुमसे मेरा क्या प्रयोजन?' तब वररुचि ने उसके वियोग को सहन न कर सकने के कारण उपकोशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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