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________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६६५ सरीरबउस-शरीरबकुश। सरीराभिषक्तचित्तो विभूषितार्थो तत्प्रतिकारसेवी शरीरबकुशः। जो शरीर के प्रति आसक्त, विभूषा का अर्थी (निरन्तर शरीर का परिकर्म करने वाला) तथा शरीर के प्रतिकूल तथ्य का प्रतिकार करने वाला होता है, वह शरीरबकुश कहलाता है। __ (उचू पृ. १४५) ससणिद्ध-जल से स्निग्ध। ससणिद्धं जं न गलति तिंतयं तं ससणिद्धं भण्णइ। गीली वस्तु, जिससे जल-बिन्दु नहीं गिरते, उसे सस्निग्ध कहते हैं ।(दशजिचू पृ. १५५) साहु-साधु । जेण कारणेण तस-थावराणं जीवाणं अप्पणो य हियत्थं भवइ तहा जयंति अतो य ते साहुणो भण्णंति। जो त्रस-स्थावर जीवों के तथा स्वयं के हित के लिए प्रयत्नशील रहते हैं, वे साधु हैं। (दशजिचू पृ. ७०) सिक्खग-नवदीक्षित। सिक्खगो णाम जो अहुणा पव्वइओ। तत्काल प्रव्रजित मुनि शैक्ष कहलाता है। (दशहाटी प. ३१) सिक्खा-शिक्षा। शिक्षा नाम शास्त्रकलासु कौशलम्। शास्त्रों में तथा कलाओं में कुशलता प्राप्त करना शिक्षा है। (उचू पृ. १६५) सिणात-स्नातक। मोहणिज्जाइघातियचउकम्मावगतो सिणातो भण्णति। जो मोहनीय आदि चार घाती कर्मों का विनाश कर देता है, वह स्नातक निर्ग्रन्थ है। (उचू पृ. १४५) सिद्ध--सिद्ध। रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम्। __ सदा नियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥ राग आदि की वासना से मुक्त, निर्मल चित्त वाले तथा सदा नियत स्थान में स्थित सिद्ध कहलाते हैं। (दशहाटी प. १) सिला-शिला। सवित्थारो पाहाणविसेसो सिला। विस्तृत पाषाणखंड शिला कहलाती है। (दचू प. ११) • सिला नाम वित्थिण्णो जो पाहाणो सा सिला। मूल से विच्छिण्ण पाषाण शिला कहलाती है। (दशजिचू पृ. १५४) सीओदग-सचित्त जल। उदगं असत्थहयं सजीवं सीतोदगं भण्णइ। जो जल शस्त्र प्रतिहत नहीं होता, वह शीतोदक (अप्रासुक जल) कहलाता है। (दशजिचू पृ. ३३९) सीयपरीसह-शीतपरीषह। जे मंदपरीणामा परीसहा ते भवे सीया। मंद परिणाम वाले परीषह शीत परीषह कहलाते हैं। (आनि २०४) सीलगुण-शीलगुण। सीलगुणो णाम अक्कुस्समाणो वि ण खुब्भति, अहवा सद्दादिएसु भद्दयपावरसु ण रज्जति दुस्सति वा। आक्रोश किए जाने पर भी क्षुब्ध नहीं होना, प्रशस्त इन्द्रिय-विषयों में अनुरक्त तथा अप्रशस्त इंद्रिय-विषयों में द्वेष नहीं करना शीलगुण है। (आचू. पृ. ४५) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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