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________________ ७६ नियुक्ति पंचक होने के बाद व्यक्ति कृतार्थ हो जाता है फिर उसके लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता। विद्वानों ने इन दश अवस्थाओं को गुणस्थान - विकास की पूर्वभूमिका के रूप में स्वीकार किया है । डॉ. सागरमलजी जैन ने विस्तार से इस संदर्भ में चिन्तन किया है। लेकिन सैद्धान्तिक दृष्टि से यदि गुणस्थानों के साथ इन अवस्थाओं की तुलना करें तो संगति नहीं बैठती । प्रथम तीन गुणस्थानों का इन दश अवस्थाओं में कहीं भी समाहार नहीं है । गुणस्थान - विकास की दृष्टि से विरत के बाद अनंतवियोजक की स्थिति आए, यह आवश्यक नहीं है । यह स्थिति अविरतसम्यग्दृष्टि अर्थात् चौथे गुणस्थान में भी प्राप्त हो सकती है। चौथे गुणस्थान में गुणश्रेणी - विकास की प्रथम, चतुर्थ और पंचम – इन तीन अवस्थाओं का समावेश सकता है क्योंकि चौथे गुणस्थान में भी व्यक्ति अनंतानुबंधी चतुष्क और दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का क्षय कर क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। जबकि गुणश्रेणी - विकास की अवस्थाओं में विरत के बाद अनंतवियोजक और दर्शनमोहक्षपक की स्थिति है । इन दश अवस्थाओं के आधार पर यह मानना पड़ेगा कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षपकश्रेणी लेता है अर्थात् छठी, सातवीं अवस्था में पहले चारित्रमोह का उपशम फिर आठवीं, नवीं अवस्था में चारित्र मोह की प्रकृतियों का क्षय करता है पर गुणस्थान सिद्धांत के अनुसार यह बात संगत नहीं बैठती । गुणस्थान कमारोह अनुसार यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति उपशमश्रेणी लेने के बाद क्षायकश्रेणी ले। वहां दोनों विकल्प संभव हैं, व्यक्ति पहले कषायों का उपशमन करता हुआ उपशम श्रेणी भी ले सकता है और क्षय करता हुआ क्षपकश्रेणी भी प्राप्त कर सकता है अतः कहा जा सकता है कि गुणश्रेणी - विकास की ये अवस्थाएं गुणस्थान - सिद्धान्त की पूर्व भूमिकाएं नहीं हैं । तत्त्वार्थ सूत्र को ध्यान से देखने पर यह स्पष्ट अवधारणा बन जाती है कि गुणस्थान एवं गुणश्रेणी विकास की अवस्थाएं — इन दोनों का स्वतंत्र अस्तित्व था । उमास्वाति ने गुणस्थानों के अनेक नामों का उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र में किया है। उदाहरण के लिए कुछ नामों को प्रस्तुत किया जा सकता है— तत्त्वार्थसूत्र गुणस्थान-नाम १. अविरत (चौथा गुणस्थान) २. देशविरत (पांचवां गुण० ) ३. प्रमत्तसंयत (छठा गुण० ) ४. अप्रमत्तसंयत (सातवां गुण० ) तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । (९ / ३५) तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । (९/३५) तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ( ९ / ३५ ) आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय Jain Education International धर्ममप्रमत्तसंयतस्य । (९/३७) (९/१२) बादरसम्पराये सर्वे । सूक्ष्मसंपरायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । ( ९/१०) उपशांतक्षीणकषाययोश्च (९ / ३८ ) । उपशांतक्षीणकषाययोश्च ( ९ / ३८ ) । परे केवलिनः (९/४०) ५. बादरसम्पराय (आठवां, नवां गुण० ) ६. सूक्ष्मसंपराय (दसवां गुण ० ) ७. उपशांतकषाय ( ग्यारहवां गुण० ) ८. क्षीणकषाय (बारहवां गुण० ) ९. केवली (तेरहवां, चौदहवां गुण० ) १. श्रमण, जनवरी - मार्च १९९२, गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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