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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५४५ है।' अमात्य ने पहचान के चिह्नों की बात कही। राजा ने पूछा-'बताओ।' तब अमात्य ने वह लिखित पत्र बताया। राजा ने सुरेन्द्रदत्त का आलिंगन करके कहा-'आठ रथचक्र में स्थित पुतलिका की आंख को बींधकर तुम राज्य और निर्वृति दारिका को प्राप्त करो। तब सुरेन्द्रदत्त ने 'जैसी आज्ञा' ऐसा कहकर धनुष को उठाया। चारों दिशाओं में स्थित दासपुत्र विघ्न उत्पन्न करने लगे। दोनों पार्श्व में खड्ग को ग्रहण कर दो व्यक्ति खड़े थे। यदि किसी प्रकार यह राजकुमार लक्ष्य को चूक जाए तो इसका शीर्षच्छेद कर देना है। उपाध्याय भी पास में स्थित होकर भय उत्पन्न करते हुए कहने लगा-'यदि लक्ष्य चक गए तो मारे जाओगे।' वे बावीस राजकमार जो लक्ष्यभेद नहीं कर सके, वे भी विघ्न उपस्थित करने लगे। सुरेन्द्रदत्त ने इन सब विघ्नों की परवाह न करते हुए लक्ष्य में दृष्टि को स्थिर कर, मन को उसी में निविष्ट कर दिया। उसने आठ रथचक्र के भीतर पुतली की बांयी आंख को बींध डाला। तब लोगों ने उच्च स्वरों में उसका जय-जयकार किया और धन्यवाद दिया। __जिस प्रकार उस पुतली की आंख को बींधना दुष्कर था, वैसे ही मनुष्य जन्म दुष्कर है। ३३. चर्म एक तालाब था। उसका विस्तार एक लाख योजन तक था। पूरे तालाब पर सघन शैवाल छाई हुई थी। ऐसा लगता था मानो वह शैवाल रूपी चर्म से अवनद्ध हो। वहीं एक कछुआ रहता था। एक बार उसने तालाब में एक छिद्र को देखा। छेद उतना ही बड़ा था, जिसमें उसकी गर्दन समा सके। उस कच्छप ने अपनी गर्दन को छेद से बाहर निकाला और ऊपर देखा। आकाश में चांद एवं तारे टिमटिमा रहे थे। चांदनी के प्रकाश में उसने फूल एवं फलों को भी देखा। कुछ क्षणों तक वह देखता रहा, फिर उसने सोचा, परिवार के सदस्यों को भी यह मनोरम दृश्य दिखाऊं। वह गया और अपने पूरे परिवार को लेकर आया। वह चारों ओर घूमता रहा, परन्तु उसे कहीं भी छिद्र दृष्टिगत नहीं हुआ। इसी प्रकार मनुष्यभव प्राप्त होना दुष्कर है। ३४. युग एक अथाह समुद्र के एक छोर पर जुआ है और दूसरे छोर पर उसकी कील पड़ी है। उस कील का जुए के छिद्र में प्रवेश होना दुर्लभ है। उसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है। कील उस अथाह पानी में प्रवाहित हो गयी। बहते-बहते संभव है कि वह इस छोर पर आकर जुए के छिद्र में प्रवेश कर ले, किन्तु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव का पुनः मनुष्य जन्म पाना दुर्लभ है।' ३५. परमाणु (क) एक खंभा था। किसी देव ने उसको चूर्णित कर उस चूर्ण को एक नालिका में भरकर मंदर पर्वत पर जाकर फूंककर बिखेर दिया। स्तम्भ के सारे परमाणु इधर-उधर बिखर गए। क्या दूसरा कोई भी व्यक्ति पुन: उन परमाणुओं को एकत्रित कर वैसे ही स्तम्भ का निर्माण कर सकता है? कभी नहीं। वैसे ही एक बार मनुष्य जन्म को व्यर्थ खो देने पर पुनः उसकी प्राप्ति दुष्कर होती है। १. उनि.१६१, उसुटी.प. ६५, ६६। २. उनि.१६१, उसुटी.प. ६६। ३. उनि.१६१, उसुटी.प. ६६,६७। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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