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________________ ५४४ नियुक्तिपंचक ने अपनी पुत्री को कहा-'जब तुम्हें गर्भ की अनुभूति हो तब मुझे कह देना।' एक दिन अमात्यपुत्री ने अपने पिता को दिन, मुहूर्त आदि बताते हुए राजा द्वारा किया गया वादा कह सुनाया। अमात्य ने उसे सारा एक पत्र में लिखा और उस पत्र को छिपाकर रख लिया। अमात्य-पुत्री का गर्भकाल पूरा हुआ। नौ महीनों के पश्चात् उसने एक पुत्र का प्रसव किया। उसका नाम सुरेन्द्रदत्त रखा गया। उसी दिन उसके घर चार दास-पुत्रों का जन्म हुआ। उनके नाम आग्निक, पर्वतक, बाहुलक और सागर रखे गए। राजा के सभी पुत्रों- सुरेन्द्रदत्त तथा दासीपुत्रों को कलाचार्य के पास शिक्षाग्रहण करने भेजा गया। कलाचार्य ने लेख, गणित आदि अनेक कलाओं का शिक्षण दिया। जब कलाचार्य दासीपुत्रों को शिक्षण देते तब वे आचार्य को आकुल-व्याकुल करते । अविनय और उदंडता के कारण वे शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाए। वे बावीस राजकुमार कलाचार्य के द्वारा डांटे जाने पर आचार्य को पीट देते या अशिष्ट वचनों का प्रयोग करते। जब आचार्य उनको पीटते तो वे अपनी माता को जाकर आचार्य की शिकायत कर देते। तब राजा आचार्य को तिरस्कृत करते कि हमारे पुत्रों को आप क्यों पीटते हैं? माता-पिता के हस्तक्षेप से वे बावीस पुत्र सम्यक् रूप से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सके। लेकिन सुरेन्द्रदत्त ने कलाचार्य से बहुत कुछ शिक्षा प्राप्त कर ली क्योंकि वह विनीत और गंभीर था। मथुरा के राजा जितशत्रु के निर्वृति नामक लड़की थी। विवाह के योग्य होने पर उसे अलंकृत करके राजा के सामने उपस्थित किया गया। राजा ने अपनी पुत्री से कहा-'तुम्हें जो वर प्रिय हो, उसका वरण कर लो।' उसने कहा-'जो शूर, वीर और विक्रान्त हो, वही मेरा पति होगा।' राजा ने कहा-'जिसे तुम पसंद करोगी उसे राज्य भी दिया जाएगा।' वह सेना और वाहन को लेकर इन्द्रपुर नगर गयी। वहां इन्द्रदत्त राजा के बहुत पुत्र थे। इन्द्रदत्त ने संतुष्ट होकर सोचा- 'अन्य राजाओं से इस लड़की का पिता अच्छा है। यह स्वयं यहां आई है।' इन्द्रदत्त ने नगर को पताकाओं से सजाया। एक स्थान पर उसने एक अक्ष पर आठ चक्र बनाए। उनके आगे एक पुतली रख दी और उसकी आंख बींधने की शर्त रखी गयी। इन्द्रदत्त राजा सन्नद्ध होकर अपने पुत्रों के साथ वहां आया। निर्वृति राजकुमारी भी सर्वालंकार से विभूषित होकर वहां बैठ गयी। जैसे द्रौपदी के स्वयंवर में राजाओं और योद्धाओं का रंग जमा था वैसा ही रंग उस स्वयंवर में जमा। इन्द्रदत्त राजा के ज्येष्ठ पुत्र का नाम श्रीमाली था। राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र से कहा-'इस कन्या और राज्य को ग्रहण करना चाहिए अतः तुम दत्तचित्त होकर पुतली का लक्ष्यवेध करो।' वह राजकुमार अनभ्यास के कारण लोगों के मध्य धनुष को उठाने में भी समर्थ नहीं हुआ। किसी प्रकार उसने धनुष को उठाया। उसने बाण छोड़ा लेकिन बाण चक्र से भग्न हो गया। इस प्रकार किसी ने एक अर (चक्र) को पार किया. किसी ने दसरे का तथा किसी-किसी का बाण तो बाहर से ही निकल गया। तब राजा इन्द्रदत्त अधीर होकर अपने आपको अपमानित महसूस करने लगा। अमात्य ने कहा-'आप अधीर क्यों होते हैं?' राजा बोला-'इन पुत्रों के कारण मुझे अपमानित होना पड़ा है। इन पुत्रों ने मुझे तुच्छ बना डाला है।' तब मंत्री बोला-'मेरी पुत्री से उत्पन्न आपका एक अन्य पुत्र भी है, जिसका नाम सुरेन्द्रदत्त है। वह इस लक्ष्य को बींधने में समर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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