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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं पदार्थ छिपाए हुए हैं। राजा ने थैलों को फड़वाया। थैलों को फाड़ने पर यह देखकर राजा को आश्चर्य हुआ कि कहीं सोना, कहीं चांदी तथा कहीं मणि, मोती, प्रवाल आदि बहुमूल्य पदार्थों के भांड रखे हुए हैं। उसे देखकर राजा ने रुष्ट होकर अपने व्यक्तियों को आदेश दिया कि यह प्रत्यक्षतः चोर है। इसे बांधकर ले जाओ । अचल थर-थर धूजने लगा। आरक्षकों ने उसे बांधा। राजा यान पर चढ़कर अपने भवन में चला गया। आरक्षक उसे राजा के पास लाए। उसे गाढ़ बंधन में बंधा देखकर राजा ने कहा- 'अरे ! इसे छोड़ दो।' आरक्षकों ने उसे मुक्त कर दिया। राजा ने पूछा- 'क्या तुम मुझे पहचानते हो?" अचल बोला- 'देव ! आप समस्त विश्व में प्रसिद्ध हैं। आपको कौन नहीं जानता है ?' राजा ने कहा - ' औपचारिक बातों को छोड़ो। यदि तुम जानते हो तो स्पष्ट कहो ।' अचल ने कहा- 'मैं आपको पूरी तरह नहीं जानता।' तब राजा ने देवदत्ता को वहां बुलाया। वह अलंकारों से अलंकृत होकर वहां आई। अचल ने उसे पहचान लिया। उसे देख वह मन ही मन लज्जा का अनुभव करने लगा । देवदत्ता ने कहा- 'यह वही मूलदेव है, जिसको तुमने कहा था कि भाग्यवश यदि मेरे में कभी ऐसी विपत्ति आ जाए तो तुम मेरी सहायता करना । यह अवसर है। राजा (मूलदेव) ने तुमको बंधनमुक्त कर दिया है। यह सुनकर अचल लज्जित होकर बोला- 'आपने मुझ पर महान् अनुग्रह किया है।' ऐसा कहकर वह राजा और देवदत्ता के चरणों में गिर पड़ा। सकल कलाओं से परिपूर्ण, निर्मल स्वभाव वाले पूर्णिमा के चन्द्रमा की मैंने राहु जैसी कदर्थना की है अतः हे राजन् ! मुझे क्षमा कर दें। आपकी कदर्थना करने से कुपित होकर महाराज ने भी मुझे उज्जयिनी में प्रवेश नहीं दिया। मूलदेव ने कहा- 'मैंने और देवी देवदत्ता ने तुम्हें क्षमा कर दिया है।' वह फिर उन दोनों के चरणों में गिर पड़ा । देवदत्ता ने परम आदर से उसे स्नान करवाया, भोजन खिलाया और उसे बहुमूल्य वस्त्र पहनाए। राजा ने उसे कर मुक्त कर दिया । उसका सारा सामान उसको सौंप दिया। राजा विक्रम ने उसे उज्जयिनी भेजा। राजा मूलदेव के द्वारा अभ्यर्थित होने के कारण उज्जयिनी के राजा विचारधवल ने भी उसे क्षमा कर दिया। निर्घृणशर्मा ने जब सुना कि मूलदेव राजा बन गया है तो वह भी वेन्नातट पर आ गया। मूलदेव ने उसकी अदृष्ट सेवा से प्रसन्न होकर एक गांव उसे पुरस्कार के रूप में दे दिया। वह राजा को प्रणाम कर कृतज्ञता ज्ञापित कर अपने गांव चला गया। इधर उस कार्पटिक ने सुना कि मूलदेव ने मेरे जैसा ही स्वप्न देखा था पर वह स्वप्नादेश से राजा बन गया । उसने सोचा- 'मैं वहां जाऊं, जहां गोरस- दही, छाछ, आदि प्राप्त होते । उन्हें पीकर सो जाऊं । सोऊंगा तो पुनः वैसा ही स्वप्न देखूंगा।' संभव है वह पुनः उस स्वप्न को देख ले, लेकिन मनुष्य भव पुनः मिलना दुर्लभ है। ३२. चक्र इन्द्रपुर नगर में इन्द्रदत्त नाम का राजा राज्य करता था । उसकी प्रिय रानियों के बावीस पुत्र थे। राजा को सभी पुत्र अपने प्राणों से अधिक प्रिय थे। राजा के अमात्य की एक पुत्री थी । विवाह के अवसर पर राजा ने उसे देखकर पूछा- 'यह कौन है ?' लोगों ने कहा- 'यह आपकी देवी (रानी) है ।' राजा उस अमात्य - पुत्री के साथ एक रात रहा। ऋतुस्नाता होने से वह गर्भवती हो गयी। अमात्य १. उनि. १६१, उसुटी. प. ५९-६५ । २. कुछ मान्यता के अनुसार एक ही रानी के बावीस पुत्र थे । Jain Education International ५४३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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