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________________ निर्युक्तिपंचक 'राजन् ! आप मुझ पर कृपा करें।' राजा ने कहा- 'बोलो, क्या चाहती हो? क्या कुछ अभद्र हो रहा है?' देवदत्ता ने कहा- 'मूलदेव को छोड़कर कोई दूसरा पुरुष मेरे घर न आए। इस अचल का मेरे घर आना रोक दें।' राजा ने कहा- 'जैसा तुम चाहोगी वैसा ही होगा पर यह तो बताओ कि वृत्तान्त क्या है ? ' तब माधवी ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। यह सुनकर राजा अचल पर अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। राजा ने कहा -'मेरी नगरी में दो रत्न हैं- देवदत्ता वेश्या तथा मूलदेव । उनकी भी निर्भर्त्सना होती है?' राजा ने तब अचल को बुलाया और उसको तिरस्कृत करते हुए कहा- 'क्या तुम इस नगरी राजा हो जो ऐसा व्यवहार करते हो? तुम बताओ, अब किसकी शरण लेना चाहते हो? मैं तुम्हें प्राणदंड देता हूँ । देवदत्ता ने कहा- 'राजन् ! कुत्ते की मौत मरे हुए को मारने से क्या लाभ? अतः इसे मुक्त कर दें।' तब राजा बोला - ' अरे अचल ! देवदत्ता के कहने से मैं तुम्हें मुक्त कर रहा हूं । तुम्हारी शुद्धि तो तब होगी जब तुम मूलदेव की खोज कर उसे यहां ले आओगे।' अचल राजा के चरणों में गिरकर राजकुल से बाहर चला गया। वह चारों दिशाओं में मूलदेव की खोज करने लगा। कहीं उसका अता-पता नहीं मिला तब वह भांडों से वाहनों को भरकर अनुभव के आधार पर व्यापारार्थ फारसकुल की ओर प्रस्थित हो गया। कुछ समय के बाद मूलदेव ने देवदत्ता और वहां के राजा के लिए एक लेखपत्र और अनेक उपहार भेजे। उसने राजा के लेखपत्र में लिखा- 'मेरा स्वभावतः देवदत्ता से बहुत प्रेम है । यदि आपको रुचिकर लगे और देवदत्ता की इच्छा हो तो देवदत्ता को यहां भेजने का अनुग्रह करें ।' राजा ने दूत से कहा - 'विक्रम राजा ने यह क्या बड़ी बात लिखी? हमारे लिए उनसे विशेष कोई चीज है क्या? देवदत्ता क्या सारा राज्य भी उसका ही है।' राजा ने देवदत्ता को बुलाया और सारी बात हुए कहा कि यदि तुम्हारी इच्छा हो तो तुम उसके पास जा सकती हो। देवदत्ता ने कहा-' आपने मुझ पर अत्यन्त कृपा की। आपकी अनुज्ञा से मेरे मनोरथ फल गए।' राजा ने अपार वैभव से देवदत्ता का सत्कार कर उसे मूलदेव के पास भेज दिया । मूलदेव ने भी बहुत सम्मान और राजकीय वैभव के साथ उसका नगर में प्रवेश करवाया। इस आदान-प्रदान से दोनों आपस में एक हो गए। देवदत्ता के साथ विषय-सुख का अनुभव करता हुआ वह आनंदपूर्वक रहने लगा । अचल फारस देश पहुंचा। वहां भांडों का विक्रय कर अपार संपत्ति अर्जित की। उसे नौका में भरकर वह वेनातट पर आया । वह नगर के बाहर रुका। अचल ने लोगों से पूछा- 'यहां के राजा का क्या नाम है ?' लोगों ने कहा- 'विक्रम'। वह सोने, चांदी और मोती के थाल भरकर राजा को भेंट करने गया । राजा ने उसे आसन दिया और पहचान लिया। अचल ने नहीं जाना कि यह वही मूलदेव है । राजा ने पूछा - ' श्रेष्ठिवर ! आप कहां से आए हैं?' अचल ने कहा- 'मैं फारसकुल से आया हूं ।' राजा के द्वारा सत्कार किए जाने पर अचल ने कहा- 'राजन् ! आप अपने निरीक्षक को भेजें, जो भांडों का निरीक्षण कर सके।' राजा ने कहा- 'मैं स्वयं देखने के लिए चलूंगा।' राजा पंचों के साथ वहां गया। अचल ने अपने जहाज में भरे सभी द्रव्य एक-एक कर राजा को दिखाए। पंचों के समक्ष राजा ने पूछा- ' श्रेष्ठीवर ! क्या आपके पास इतना ही सामान है?' अचल ने कहा-' राजन् ! इतना ही है।' राजा ने तब कहा - 'थैलों को मेरे सामने तोलो और आधा सेठ को दे दो।' राजपुरुषों ने उसे तोला । पादप्रहार तथा वंशवेध करने से यह ज्ञात हुआ कि मंजिष्ठ के भीतर बहुमूल्य For Private & Personal Use Only ५४२ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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