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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं में प्रवेश कर रहा है। दूसरे कार्पटिकों ने भी ऐसा ही स्वप्न देखा। उसने अन्य कार्यटिकों को वह स्वप्न कहा। उनमें से एक कार्पटिक ने कहा-' आज तुम घी और गुड़ से युक्त एक बड़ी रोटी प्राप्त करोगे।' यह सुनकर मूलदेव ने सोचा, ये स्वप्न के परमार्थ को नहीं जानते इसलिए उसने अपने स्वप्न का अर्थ नहीं बताया। स्वप्नद्रष्टा कार्पटिक भिक्षा के लिए गया। उसे छावनी में घी और गुड़ से संयुक्त बड़ा रोट मिला। वह प्रसन्न हो गया। उसने कार्पटिकों से यह बात कही। मूलदेव भी एक उद्यान में चला गया। वहां फूलों का ढेर लिए एक माली आ रहा था । उसने मूलदेव को पुष्प और फल दिए। उनको लेकर मूलदेव सरोवर पर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वप्न-पाठकों के पास गया। उनको प्रणाम कर कुशलक्षेम पूछा। स्वप्न- पाठकों ने भी उसे बहुमान देते हुए आने का प्रयोजन पूछा। मूलदेव ने करबद्ध होकर स्वप्न का सारा वृत्तान्त बताया। स्वप्नपाठक उपाध्याय ने प्रसन्न होकर कहा- 'मैं तुम्हें शुभ मुहूर्त्त में स्वप्न का फल बताऊंगा। आज तुम हमारे अतिथि बनकर रहो।' मूलदेव ने उसका आतिथ्य स्वीकार कर लिया। स्नान आदि से निवृत्त होकर बहुत आदर और सत्कार के साथ उसने वहां भोजन किया। उपाध्याय ने कहा - 'पुत्र ! यह मेरी कन्या विवाह योग्य है, अत: मेरे अनुरोध से तुम इसके साथ विवाह कर लो' । मूलदेव ने कहा—'महाशय ! आप अज्ञात कुल-शील वाले मुझको जामाता कैसे बना रहे हैं?' उपाध्याय ने कहा- 'वत्स ! बिना बताए ही आचार से कुल जाना जा सकता है।' उसने अनेक सुभाषितों से उसको समझाकर शुभ मुहूर्त्त में अपनी कन्या का विवाह मूलदेव के साथ कर दिया। स्वप्न का फल बताते हुए उपाध्याय ने कहा- 'तुम सात दिन के भीतर राजा बन जाओगे'। यह सुनकर मूलदेव अत्यन्त आनन्दित हुआ और वहीं सुखपूर्वक रहने लगा। पांचवें दिन वह नगर के बाहर घूमने गया । वह एक चंपक वृक्ष की छाया में विश्राम करने बैठ गया । अकस्मात् ही नगरी का राजा उस दिन मर गया। उसके कोई पुत्र नहीं था । अमात्य ने पांच दिव्य - हाथी, अश्व, स्वर्णमय जलपात्र, चामर और पुंडरीक को अधिवासित कर नगर में भेजा। वे पांचों नगर के बाहर अपरिवर्तित छाया में विश्राम कर रहे मूलदेव के पास आकर ठहरे। मूलदेव को देखकर हाथी चिंघाड़ने लगा, घोड़ा हिनहिनाने लगा, स्वर्णमय पात्र से मूलदेव का अभिषेक किया गया, चामर डुलाए गए और उस पर कमल रखा गया। लोगों ने जय-जयकार किया। हाथी ने उसे अपनी पीठ पर चढ़ा लिया और नगरी में घुमाया। मंत्री, सामन्त आदि ने उसका अभिषेक किया। आकाश से देववाणी हुई कि यह महानुभाव सम्पूर्ण कलाओं में पारंगत, देवताधिष्ठित शरीर वाला, विक्रमराज नामक राजा है, जो इसके अनुशासन में नहीं रहेगा उसको मैं क्षमा नहीं करूंगा। नगरी के सभी सामंत, मंत्री और पुरोहित मूलदेव की आज्ञा के अधीन हो गए। वह विपुल सुख का अनुभव करता हुआ रहने लगा। मूलदेव ने उज्जयिनी के राजा विचारधवल के साथ संव्यवहार प्रारम्भ किया। उन दोनों में निरन्तर प्रीति बढ़ती गई। इधर देवदत्ता अचल द्वारा मूलदेव के प्रति की गई विडम्बना को याद कर अचल से विरक्त हो गयी। उसने अचल को फटकारते हुए कहा- 'मैं वेश्या हूं, तुम्हारी पत्नी नहीं हूं । फिर भी तुम मेरे घर में रहते हुए ऐसा व्यवहार करते हो? अब तुम मेरी इच्छा के विरुद्ध प्रणय-याचना मत करना।' यह कहकर वह राजा के पास चली गई। राजा के चरणों में प्रणाम कर वह बोली Jain Education International ५४१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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