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________________ नियुक्तिपंचक (ख) शताधिक स्तम्भों पर अवस्थित एक सभा-भवन है। कालान्तर में उस सभाभवन में आग लग गई और वह जलकर नष्ट हो गया। क्या कोई ऐसा समर्थ व्यक्ति है जो उन विनष्ट पुद्गलों को एकत्रित कर पुन: उस सभा-भवन का निर्माण कर सके? यह असंभव है। इसी प्रकार मनुष्य जन्म भी दुर्लभ है। ३६. जमालि और बहुरतवाद (केवलोत्पत्ति के १४ वर्ष पश्चात्) भगवान् महावीर की बड़ी बहिन सुदर्शना कुंडपुरग्राम में रहती थी। उसके पुत्र का नाम जमालि था। भगवान् की पुत्री अनवद्यांगी उसकी भार्या थी। उसका दूसरा नाम प्रियदर्शना था। जमालि ने ५०० पुरुषों के साथ तथा प्रियदर्शना ने हजार स्त्रियों के साथ भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होकर उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। एक बार जमालि भगवान् से आज्ञा प्राप्त कर पांच सौ साधुओं के साथ श्रावस्ती नगरी चला गया। वहां तिंदुक उद्यान के कोष्ठक चैत्य में समवसृत हुआ। अंत-प्रान्त आहार सेवन से उसका शरीर रोगाक्रान्त हो गया और दाहज्वर उत्पन्न हो गया। वह बैठने में भी समर्थ नहीं रहा। उसने श्रमणों से कहा-'मेरा शय्या-संस्तारक (बिछौना) करो।' उन्होंने बिछौना करना शुरू किया। अधीर होकर उसने पूछा-'क्या बिछौना कर दिया।' श्रमणों ने कहा-'कर रहे हैं।' जमालि के मन में शंका हो गई कि भगवान तो क्रियमाण को कृत, चलमान को चलित, उदीर्यमाण को उदीरित और निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण कहते हैं, यह मिथ्या है। प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है कि बिछौना क्रि है पर कृत नहीं है, संस्तीर्यमाण है पर संस्तृत नहीं है। इस प्रकार वेदना-विह्वल जमालि मिथ्यात्व के उदय से निहव बन गया। उससे बहुरतवाद' की उत्पत्ति हुई। कुछ साधुओं ने जमालि के कथन पर श्रद्धा की तथा कुछ ने श्रद्धा नहीं की। जिन्होंने श्रद्धा की वे जमालि के पास रहे । जिन्होंने श्रद्धा नहीं की वे बोले-'जमालि ! भगवान् ने जो कहा है, वह तथ्य है। तुम जो कह रहे हो, वह मिथ्या है।' वे पुनः भगवान् महावीर के शासन में प्रव्रजित हो गए। .. साध्वी प्रियदर्शना कुंभकार ढंक के यहां ठहरी हुई थी। वह जमालि के दर्शनार्थ आई। जमालि ने उसे सारी बात समझाई। जमालि के प्रति अनुरक्त होने के कारण उसने जमालि के मत को स्वीकार कर लिया और अन्य साध्वियों को भी समझा दिया। जब कुंभकार को यह ज्ञात हुआ कि प्रियदर्शना उन्मार्ग में प्रस्थित हो गयी है तो उसने उसे सन्मार्ग पर लाना चाहा। एक दिन प्रियदर्शना कुंभकार के यहां स्वाध्याय पौरुषी में रत थी। ढंक मृन्मय भांडों का उद्वर्तन कर रहा था। उसने एक अंगारा उछाला, उससे प्रियदर्शना की शाटिका का एक छोर जल गया। उसने कहा-'आर्य ! यह शाटिका जल गई।' तब कुंभकार ढंक ने कहा-'तुमने ही तो प्ररूपणा की थी कि दह्यमान अदग्ध है फिर तुम्हारी शाटिका कैसे जल गई?' भगवान् महावीर के वचनानुर १. उनि.१६१, उसुटी.प. ६७ । जमालि की दृष्टि के प्रति अनेक जीव रत-आसक्त थे, इसलिए वह बहुरतवाद कहलाया। अथवा एक कार्य की सिद्धि बहुत समय सापेक्ष होती है, इस मान्यता में रत-आसक्त व्यक्ति बहुरतवादी कहलाए। (उशांटी. प. १५७)। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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