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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५४७ कहा जा सकता है कि दह्यमान दग्ध है न कि तुम्हारी मान्यता के अनुसार। प्रियदर्शना प्रतिबुद्ध हो गयी। वह जमालि को समझाने के लिए गयी पर जमालि ने अपने आग्रह को नहीं छोड़ा। तब साध्वी प्रियदर्शना एक हजार साध्वियों के साथ भगवान् की शरण में चली गयी। भगवान् महावीर के समझाने पर भी जमालि की शंका दूर नहीं हुई। असत्प्ररूपणा एवं मिथ्या आग्रह के कारण वह दूसरों को भी शंकित एवं भ्रमित करने लगा। उसने अनेक वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया तथा बेले-तेले आदि की विविध तपस्याएं की। १५ दिन की संलेखना एवं एक मास के संथारे में वह दिवंगत हो गया। अपने दोषों की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होकर वह लान्तक देवलोक में तेरह सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। ३७. तिष्यगुप्त और जीव प्रादेशिकवाद (केवलोत्पत्ति के सोलह वर्ष पश्चात्) राजगृह नगर के गुणशिलक चैत्य में चतुर्दशपूर्वी आचार्य वसु का आगमन हुआ। वे वहां अपने शिष्य तिष्यगुप्त को आत्मप्रवाद पूर्व पढ़ाने लगे। उसके एक आलापक में शिष्य ने आचार्य से पूछा-'भंते! क्या जीव-प्रदेश को जीव कहा जा सकता है?' आचार्य ने कहा-'उसे जीव नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार दो, तीन, चार, संख्येय, असंख्येय तथा एक प्रदेश न्यून भी जीव नहीं कहे जा सकते। प्रतिपूर्ण असंख्येय प्रदेशात्मक जीव को ही जीव कहा जाएगा।' वह उस प्रसंग से विप्रतिपन्न हो गया। वह मिथ्या प्ररूपणा करने लगा कि अंतिम प्रदेश ही जीव है। गुरु ने समझाया कि जब प्रथम प्रदेश जीव नहीं है तब अंतिम प्रदेश जीव कैसे होगा? जैसे एक तन्तु समस्त पट नहीं होता, सारे तंतु मिलकर समस्त पट बनते हैं वैसे ही एक प्रदेश जीव नहीं अपितु सारे प्रदेश समुदित रूप से जीव हैं। गुरु के समझाने पर भी वह विप्रतिपन्न रहा और अपनी असत् प्ररूपणा और मिथ्याअभिनिवेश से अन्य लोगों को भी विप्रतिपन्न करने लगा। एक बार वह आमलकल्पा नगरी में गया। वहां अंबशालवन में ठहरा। उस नगरी में मित्रश्री नामक श्रमणोपासक था। तिष्यगुप्त को संबोध देने के लिए उसने अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। तिष्यगुप्त वहां गया। मित्र श्री ने उसके समक्ष विविध खाद्य पदार्थ प्रस्तुत किए और प्रत्येक पदार्थ का एक-एक छोटा खंड उसे दिया। चावल का एक दाना, सूप की दो-चार बिन्दु और वस्त्र का एक टुकड़ा दिया। तिष्यगुप्त ने सोचा कि यह बाद में पुन: देगा। मित्र श्री दे चुकने के बाद तिष्यगुप्त के चरणों में गिरा। उसने अपने स्वजनों को कहा-'वन्दना करो। आज हम दान देकर धन्य हो गए।' यह सुनकर तिष्यगुप्त बोला-'तुमने मेरा तिरस्कार किया है।' श्रावक ने कहा-'यह तो आपका सिद्धान्त है कि अन्तिम अवयव ही वास्तविक अवयवी है। मैंने तो आपके सिद्धान्त का पालन किया है अत: तिरस्कार कैसे? यदि यह सत्य नहीं है तो मैं आपको भगवान् महावीर के सिद्धांतानुसार प्रतिलाभित करूं।' प्रतिबोध पाकर तिष्यगुप्त ने श्रावक मित्रश्री से क्षमायाचना की, तब मित्रश्री ने उसे १. उनि.१७२/१,२, उशांटी.प. १५३-५७, उसुटी.प.६९,७०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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