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________________ ९५ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण वह अनगार कहलाता है। सूत्रकृतांग के अनुसार जो निरभिमानी, विनीत, पापमलप्रक्षालक, दान्त, रागद्वेषरहित, शरीर के प्रति अनासक्त, अनेक परीषहों से अपराजित, अध्यात्मयोगी, विशुद्ध चारित्र-सम्पन्न, सावधान, स्थितात्मा, यशस्वी, विवेकशील और परदत्तभोजी होता है, वह भिक्षु है। उत्तराध्ययन के सभिक्खुय अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु की निम्न कसौटियां बताई गई हैं—जो राग-द्वेष, मन, वचन, काया की अशुभ प्रवृत्ति, सावद्य योग, गौरवत्रय, शल्यत्रय, विकथा, आहार-भय आदि संज्ञाओं तथा कषाय और प्रमाद आदि का भेदन करता है, वह भिक्षु है। जैसे पीतल और सोना रंग से समान होने पर भी एक नहीं होते, वैसे ही केवल नाम और रूप की समानता तथा भिक्षा करने मात्र से भिक्षु नहीं हो सकता।' नियुक्तिकार ने भिक्षु के १७ मौलिक गुण निर्दिष्ट किए हैं, जो भिक्षुत्व के पैरामीटर कहे जा सकते हैं—संवेग, निर्वेद, विषय-विवेक, सुशीलसंसर्ग, आराधना, तप, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, शांति, मार्दव, आर्जव, विमुक्ति, अदीनता, तितिक्षा और आवश्यक-परिशुद्धि ।' दशवैकालिकनियुक्ति में भिक्षु का स्वरूप बाईस उपमाओं से समझाया गया है। भिक्षु सर्प के समान एकदृष्टि, पर्वत के समान कष्टों में अप्रकंपित, अग्नि के समान तेजस्वी तथा अभेददृष्टि वाला, सागरसम गंभीर एवं ज्ञान-रत्नों से युक्त, नभ के समान स्वावलम्बी, वृक्ष के समान मान-अपमान में सम, भ्रमर के समान अनियतवृत्ति, मृग के समान अप्रमत्त, पृथ्वी के समान सहिष्णु, कमल की भांति निर्लेप, सूर्य के समान तेजस्वी, पवन की भांति अप्रतिबद्धविहारी, विष की भांति सर्वरसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, वंजुल की तरह विषघातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की भांति सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की तरह उपयुक्त देश-कालचारी, नट की भांति प्रयोजन के अनुरूप परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संविभागी तथा कांच की तरह निर्मल हो। भिक्षु की आंतरिक साधना को प्रकट करने वाला एक महत्त्वपूर्ण विशेषण है -वोसठ्ठचत्तदेह । शारीरिक क्रियाओं का त्याग करने वाला वोसट्ठदेह तथा शरीर का परिकर्म-स्नान-मर्दन, उबटन आदि नहीं करने वाला चत्तदेह' कहलाता है। ये दोनों शब्द भिक्षु की आंतरिक और बाह्य दोनों साधना के द्योतक हैं तथा 'इमं सरीरं अणिच्चं' की आत्मगत भावना को व्यक्त करते हैं। भिक्षु वह होता है, जो निदान नहीं करता। निदान का अर्थ है भौतिक पदार्थों की प्राप्ति के लिए साधना का विनिमय कर देना। भिक्षु भावी फलाशंसा से विरत होता है। वह अपनी साधना के बदले ऐहिक फल-प्राप्ति की कामना नहीं करता। उसका स्व होता है आत्मा पदार्थ उसके लिए आदर्श नहीं होते। वे मात्र उपयोगिता की दृष्टि से गृहीत होते हैं। . पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा—ये दो महान् दोष हैं। वास्तविक भिक्षु इन दोनों से बचकर चलता है। उसका आलंबन सूत्र होता है—पत्तेयं पुण्णपावें । प्रत्येक प्राणी के अपना-अपना पुण्य और पाप तथा १. आ. १/३५; अणगारे उज्जुकडे नियागपडिवण्णे अमायं कुव्वमाणे वियाहिए। २. सू. १/१६/५। ३. उनि ३७१, ३७२। ४. दशनि ३२५ । ५. दशनि ३२३, ३२४ । ६. दशनि १३२, १३३, अचू पृ.३६,३७ । ७. दश १०/१३ । ८. दश १०/१३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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