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________________ नियुक्तिपंचक अपनी-अपनी क्षमता-अक्षमता होती है। जो इस मर्म को समझ लेता है, वह पर-निन्दा और आत्म-श्लाघा से बच जाता है। जो इस मर्म को नहीं पहचानता, वह प्रव्रजित हो जाने पर और भिक्षाजीवी भिक्षु हो जाने पर भी परनिन्दा और आत्म-श्लाघा से नहीं बच सकता। नियुक्तिकार ने भिक्षु के आंतरिक और व्यावहारिक गुणों का सुन्दर निरूपण किया है। भिक्षाचर्या श्रमण संस्कृति में भिक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मुनिचर्या के साथ भिक्षाचरी का गहरा संबंध है। 'भिक्खावित्ती सुहावहा', 'उपवासात् परं भक्ष्यम्-ये सूक्त भिक्षावृत्ति के महत्त्व को प्रदर्शित करने वाले हैं। माधुकरी भिक्षा उत्कृष्ट अहिंसक जीवन शैली का उदाहरण है। यद्यपि वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी माधुकरी भिक्षा का उल्लेख मिलता है पर प्रायोगिक रूप से भगवान् महावीर ने जिस प्रकार की असावद्य--पापरहित भिक्षावृत्ति का उपदेश दिया, वह अद्भुत है। जो आजीविका के निमित्त दीन, कृपण, कार्पटिक आदि भिक्षा के लिए घूमते हैं, वे द्रव्य भिक्षु हैं, वास्तविक नहीं। अत: भिक्षाचर्या और भिखारीपन दोनों अलग-अलग हैं। __ वैदिक परम्परा में भिक्षा के संदर्भ में अजगरी एवं कापोती वृत्ति का उल्लेख भी मिलता है। भागवत में ऋषभ की भिक्षावृत्ति को अजगरी वृत्ति के रूप में उल्लिखित किया है। मांगे बिना सहज रूप से जो मिले, उसमें संतुष्ट रहना अजगरी वृत्ति है। संभव है अनियतता और निश्चेष्टता के आधार पर इस भिक्षावृत्ति का नाम अजगरी वृत्ति पड़ा होगा। ऋषभ के लिए गो, मृग और काक आदि वृत्तियों का भी संकेत मिलता है।" जैन आगम साहित्य में गोचरी और मृगचारिका (उ. १९/८३,८४) का उल्लेख मिलता है। महाभारत में ब्राह्मण के लिए कापोती वृत्ति का संकेत मिलता है। इसे उञ्छवृत्ति भी कहा जाता था। अनेषणीयशंकिता के आधार पर कापोती वृत्ति का उल्लेख उत्तराध्ययन में मिलता है। कबूतर की भांति साधु को एषणा आदि दोषों से शंकित रहना चाहिए। दशवकालिक सूत्र का प्रथम अध्ययन माधुकरी भिक्षा के साथ प्रारम्भ होता है। वहां साधु की भिक्षा को भ्रमर से उपमित किया गया है। नियुक्तिकार ने सूत्र की गाथाओं के आधार पर अनेक प्रश्नोत्तरों के माध्यम से माधुकरी भिक्षा के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। भ्रमर की उपमा साधु की भिक्षावृत्ति पर पूर्णत: लागू नहीं होती। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि भ्रमर तो अदत्त ग्रहण करते हैं तथा असंयत होते हैं अत: इस उपमा को देने से श्रमण को असंयत मानना पड़ेगा। इस प्रश्न का समाधान देते हुए नियुक्तिकार स्पष्ट कहते हैं कि उपमा एकदेशीय होती है। जिस प्रकार चन्द्रमुखी दारिका कहने पर १. (क) धम्मपद, पुष्फवग्ग ४/६; यथापि भमरो पुप्फ, वण्णगंधं अहेठयं । पलेति रसमादाय, एवं गामे मुनी चरे।। (ख) मभा, उद्योगपर्व ३४/१७; यथा मधु समादत्ते, रक्षन् पुष्पाणि षट्पदः । तद्वदर्थान् मनुष्येभ्य आदद्यादविहिंसया।। २. दश ५/१/९२; अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहूण देसिया। ३. दशनि ३१२। ४. भाग. ५/५/३२। ५. भाग. ५/५/३४; एवं गो-मृग-काकचर्यया व्रजस्तिष्ठन्नासीनः............ ६. मभा. शांतिपर्व २४३/२४; कुम्भधान्यैरुञ्छशिलै: कापोती चास्थितास्तथा । यस्मिश्चैते वसन्त्यहस्तिद् राष्ट्रमभिवर्धत।। .७. उ. १९/३३; कावोया जा इमा वित्ती। ८. दशनि ११४, ११५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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