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________________ नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण दारिका के मुख की चन्द्रमा की सौम्यता से तुलना की जाती है न कि कलंक आदि अन्य चीजों से। इसी प्रकार भ्रमर की उपमा देने के दो हेतु हैं---अनियतवृत्ति और अहिंसा का अनुपालन ।२ दशवैकालिक सूत्र एवं उसकी नियुक्ति के अनुसार भ्रमर की तुलना से साधु की भिक्षा की तुलना करने पर निम्न बातें फलित होती हैं १. जैसे भ्रमर अपने जीवन-निर्वाह के लिए पुष्प आदि को म्लान या क्लान्त नहीं करता, वैसे ही मुनि दूसरों को कष्ट पहुंचाए बिना स्वयं की आवश्यकता-पूर्ति करते हैं । २. जैसे मधुकर पुष्पों से सहज निष्पन्न रस को ग्रहण करता है, वैसे ही मुनि गृहस्थों से सहजनिष्पन्न आहार को ग्रहण करते हैं। सहज निष्पन्नता के सदर्भ में नियुक्तिकार ने पूर्वपक्ष के रूप में एक शंका उठाई है कि यदि कोई यह कहे कि गृहस्थ श्रमणों की अनुकम्पा अथवा पुण्योपार्जन के निमित्त से सुविहित श्रमणों के लिए भोजन बनाते हैं अत: पाकोपजीवी होने के कारण हिंसाजन्य दोष से लिप्त होते हैं। शंका समाधान के रूप में इसका उत्तरपक्ष प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जैसे तृणों के लिए वर्षा नहीं होती, मृगों के लिए तृण नहीं बढ़ते तथा भ्रमरों के लिए शतशाखी पुल नहीं फलते वैसे ही गृहस्थ भी साधु के लिए भोजन नहीं पकाते। जैसे वृक्ष स्वभावत: फलते-फूलते है. वैसे ही गृहस्थ भी स्वभावत: पकाते एवं पकवाते हैं अत: भ्रमर की भांति मुनि सहज निष्पन्न आहार की गवेषणा करते हैं। दूसरा विकल्प प्रस्तुत करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि जंगल में, दुर्भिक्ष में और महामारी में भी मुनि रात्रि-भोजन नहीं करते। फिर भी गृहस्थ रात में भोजन बनाते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्राम एवं नगर हैं, जहां न तो साधु जाते हैं और न रहते हैं फिर भी वहां गृहस्थ भोजन पकाते हैं अत: स्पष्ट है कि गृहस्थ स्वभावत: स्वयं के लिए तथा अपने परिजनों के लिए समय पर भोजन पकाते हैं।" ३. जैसे भ्रमर अनेक फूलों से थोड़ा-थोड़ा रस ग्रहण करता है, वैसे ही श्रमण अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार ग्रहण करता है। ४. जैसे मधुकर किसी एक वृक्ष या फूल पर ही आश्रित नहीं रहता, वैसे ही श्रमण भी किसी एक गांव, घर या व्यक्ति पर आश्रित न रहकर अनियत रूप से सामुदानिक भिक्षा ग्रहण करता है। ५. जैसे भ्रमर दूसरे दिन के लिए कुछ भी संग्रह करके नहीं रखता, वैसे ही श्रमण भी आवश्यकता- पूर्ति के लिए ग्रहण करता है, संचय के लिए नहीं। भ्रमर अदत्त भोजन ग्रहण करते हैं किन्तु श्रमण अदत्त की इच्छा भी नहीं करते ।१०।। साधु परकृत, परनिष्ठित (परार्थ निष्पन्न) तथा विगतधूम आहार की एषणा करते हैं। वे नवकोटि से परिशुद्ध तथा उद्गम, उत्पादन और एषणा के दोषों से रहित आहार ग्रहण करते हैं।११ १. दशनि ९२। २. दशनि ११६ । ३. दशनि ११९, दश. १/२; न य पुष्फ किलामेइ, सो य पीणेइ अप्पयं । दश. १/४ वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मई। ४. दश १/४; अहागडेसु रीयंति, पुप्फेसु भमरा जहा। ५. दशनि ९४, ९५ ६. दशनि ११७, ११८ । ७. दशनि १००-१०३ । ८. दश. १/२; जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ९. दश. १/५; महकारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया। णाणापिंडरया दंता, तेण वुच्चंति साहुणो ।। १०. दश. १/३; दाणभत्तेसणे रया, दशनि ११४ । ११. दशनि १०४, १०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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