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विस्तारभय से यहां केवल भिक्षु का स्वरूप एवं भिक्षाचर्या का ही वर्णन किया जा रहा है ।
भारतीय परम्परा में भिक्षु / संन्यासी का स्थान सबसे ऊंचा रहा है । प्रायः सभी धर्मों के आचार्यों ने भिक्षु के स्वरूप का निर्णय किया है। वैदिक परम्परा में मनुस्मृति, भगवद्गीता, महाभारत तथा उपनिषदों में अनेक स्थलों पर संन्यासी के गुणों एवं उसके स्वरूप का वर्णन मिलता है । बौद्ध परम्परा में 'धम्मपद' के अंतर्गत 'भिक्खुवग्ग' में भिक्षु के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। जैन परम्परा में प्राय: सभी आगम भिक्षु/ साधु को लक्ष्य करके लिखे गये हैं अत: स्फुट रूप से भिक्षु के गुणों एवं उसके करणीय-अकरणीय का स्थान-स्थान पर वर्णन मिलता किन्तु दशवैकालिक में 'स- भिक्खु' तथा उत्तराध्ययन में 'स-भिक्खुय' नामक स्वतंत्र अध्ययन हैं, जिनमें भिक्षु के स्वरूप, लक्षण, चर्या आदि का निरूपण किया गया है।
दशवैकालिकनिर्युक्ति में 'स- भिक्खु' अध्ययन के नाम की व्याख्या करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि सकार तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है – १. निर्देश, २. प्रशंसा और ३. अस्तिभाव । '
नियुक्ति पंचक
'स- भिक्खु ' — इस शब्द में सकार का प्रयोग निर्देश और प्रशंसा के अर्थ में हुआ है। जो दशवैकालिक में वर्णित अनुष्ठेय कार्यों का पालन करता है, वह (स) भिक्षु है । यहां सकार निर्देश के अर्थ में प्रयुक्त है, जिसका तात्पर्य यह है कि जो साधक / साधु इस आगम के पूर्ववर्ती नौ अध्ययनों में कथित आचार का पालन करता `तथा उसकी सम्यक् परिपालना और पुष्टि के लिए भिक्षा करता है, वह भिक्षु है। जो केवल उदरपूर्ति के लिए भिक्षाटन करता है; वह भिक्षु नहीं होता ।' 'स' और 'भिक्खु' (स-भिक्खु) इस यौगिक वाक्यांश में भिक्षु शब्द विशेष अर्थ में रूढ़ हो जाता है। इसके अनुसार भिक्षाशील व्यक्ति भिक्षु नहीं, किन्तु अहिंसक जीवन - निर्वाह के लिए शुद्ध एषणा करने वाला भिक्षु होता है।' दशवैकालिक के दूसरे अध्ययन की नियुक्ति में भिक्षु के २० तथा दशवें अध्ययन की नियुक्ति में २८ पर्यायवाची नामों की चर्चा करके उन सबको भिन्न-भिन्न निरुक्तों से समझाया गया है।
निर्युक्तिकार ने द्रव्य और भाव भिक्षु के स्वरूप द्वारा भिखारी और भिक्षु में भेदरेखा स्पष्ट की है।' उनके अनुसार भिक्षु शब्द का एक निरुक्त है— जो भेदन करता है, वह भिक्षु है । इस अर्थ में जो कुल्हाड़ी से वृक्ष का छेदन - भेदन करता है, वह भी भिक्षु कहलाता है परन्तु वह द्रव्य भिक्षु है । भाव भिक्षु वह होता है, जो तपरूपी कुल्हाड़ी से युक्त होकर कर्मों का छेदन - भेदन करता है । जो भिक्षा मांगकर खाता है परन्तु स्त्री- सहित और आरंभी है, मिथ्यादृष्टि और हिंसक है, संचय करता है, सचित्तभोजी और उद्दिष्टभोजी है, अर्थ - अनर्थ पाप में प्रवृत्त होता है, वह द्रव्य भिक्षु है । यथार्थ भिक्षु वह होता है, जो भिक्षु के आचार का अक्षरश: पालन करता है और ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र की वृद्धि करता रहता है।" आचारांगनियुक्ति में अनगार के स्वरूप को इस भाषा में प्रकट किया है— 'जो गुप्तियों
गुप्त, समितियों से समित, यतनाशील तथा सुविहित होते हैं, वे अनगार कहलाते हैं।“ आचारांग के अनुसार जो ऋजु होता है, मुक्तिपथ पर प्रस्थित होता है तथा अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता,
१. दशनि ३०६ ।
२. दशनि ३०७ ।
३. दशनि ३०७ / १ ।
४. दशनि १९३४, १३५, ३२०-२२ ।
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५. दशनि ३१४-१६ ।
६. दशनि ३११, ३१७ ।
७. दशनि ३१२- ३१४ । ८. आनि १०५ ।
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