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________________ ३७८ नियुक्तिपंचक १४८. जलचर, स्थलचर तथा खेचर में जो श्रेष्ठ और कान्त होते हैं और जो लोगों द्वारा स्वभावतः अनुमत होते हैं, वे तिर्यञ्चों में पौंडरीक होते हैं। १४९. अर्हत्, चक्रवर्ती, चारणश्रमण, विद्याधर, दशार और जो अन्य ऋद्धिमान् व्यक्ति हैं, वे मनुष्यों में पौंडरीक होते हैं। १५०. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देवों में जो प्रधान हैं, वे देवताओं में पौंडरीक होते हैं। १५१. जैसे धातुओं में कांस्य प्रधान है वैसे ही वस्त्र, मणि, मौक्तिक, शिला तथा प्रवालों में जो प्रधान हैं, वे अचित्त पौंडरीक होते हैं। ये सारे द्रव्य पौंडरीक हैं। १५२. अचित्त तथा मिश्र द्रव्यों में जो प्रवर हैं, वे पौंडरीक होते हैं, शेष कंडरीक होते १५३. लोक में जो क्षेत्र शुभ अनुभाव वाले होते हैं जैसे देवकुरु, उत्तरकुरु आदि-वे प्रवर क्षेत्रपौंडरीक होते हैं। १५४. जो प्राणी भवस्थिति' तथा कालस्थिति से प्रवर हैं, वे काल पौंडरीक होते हैं तथा शेष कंडरीक होते हैं। १५५. गणना में पौंडरीक है-रज्जु की संख्या। संस्थान में पौंडरीक है-समचतुरस्र संस्थान । ये सारे पौंडरीक और शेष सारे कंडरीक हैं। १५६. औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक तथा सान्निपातिकइन भावों में जो प्रवर होते हैं, वे भाव पौंडरीक हैं। १५७. अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय तथा अध्यात्म-धर्मध्यान आदि में जो मुनि प्रवर होते हैं, वे भाव पौंडरीक हैं। १५८. प्रस्तुत अध्ययन में द्रव्य पौडरीक-वनस्पतिकाय का तथा भाव पौंडरीक-श्रमण का अधिकार है। १५९. यहां पौंडरीक का दृष्टान्त दिया गया है । उसी पुंडरीक के उपचय अर्थात् सभी अवयवों की निष्पत्ति होने पर उसका उत्पाटन होता है। दार्टान्तिक अधिकार यह है कि चक्रवर्ती आदि भव्यों की सिद्धि-प्राप्ति जिनेश्वरदेव के उपदेश से होती हैं। १. भवस्थिति से पौंडरीक हैं-अनुत्तरोपपातिक देव क्योंकि वे उस पूरे भव में सुख का ही अनुभव करते हैं। उनमें शुभानुभाव ही होता है। २. कायस्थिति से शुभकर्म वाले मनुष्य जो सात आठ भव में निर्वाण प्राप्त करने वाले होते हैं, वे मनुष्यों में पौंडरीक हैं। ३. औदयिक भाव में तीर्थंकर तथा अनुत्तरी- पपातिकदेव, औपशमिक भाव में समस्त उपशान्तमोह वाले व्यक्ति, क्षायिक भाव में केवलज्ञानी, क्षायोपशमिक भाव में-विपूलमति, चौदह पूर्वधर, परम अवधिज्ञानी. पारिणामिक भाव तथा सान्निपातिक भाव में सिद्ध आदि प्रवर होते हैं। ४. देखें-परि. ६, कथा सं ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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