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________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति १३. जलमार्ग १४. आकाशमार्ग । १. १. फलकमार्ग-कीचड़ आदि के भय से फलक द्वारा पार किया जाने वाला मार्ग या गढ़ों को पार करने के लिए बनाया गया फलक मार्ग। २. लतामार्ग-नदियों में होने वाली लताओं (वेत्र आदि) का आलंबन लेकर पार करने का मार्ग । जैसे गंगा आदि नदियों को वेत्र लताओं के सहारे पार किया जाता था। ३. आंदोलनमार्ग--यह संभवतः झूलने वाला मार्ग रहा हो। विशेषतः यह मार्ग दुर्ग आदि पर बनाया हुआ होता था। व्यक्ति झूले के सहारे एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ पर पहुंच जाता । व्यक्ति वृक्षों की शाखाओं को पकड़कर झूलते और दूसरी ओर पहुंच जाते । ४. वेत्रमार्ग-यह मार्ग नदियों को पार करने में सहायक होता था। जहां नदियों में वेत्र लताएं (बेंत की लताएं) सघन होती थीं, वहां पथिक उन लताओं का अवष्टम्भ लेकर एक किनारे से दूसरे किनारे तक पहुंच जाता था। ५. रज्जुमार्ग-रस्सी के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचने का मार्ग । यह अति दुर्गम स्थानों को पार करने के काम आता था। ६. दवनमार्ग-दवन का अर्थ है यान-वाहन । उसके आने-जाने का मार्ग दवनमार्ग है। सभी प्रकार के वाहनों के यातायात में यह मार्ग काम आता था। ७. बिलमार्ग---ये गुफा के आकार वाले मार्ग थे। इनको "मूषिक पथ" भी कहा जाता था। ये पहाड़ी मार्ग थे, जिनमें चट्टान काट कर चूहों के बिल जैसी छोटी-छोटी सुरंगें बनायी जाती थीं। इनमें दीपक लेकर प्रवेश करना होता था। ८. पाशमार्ग--चूर्णिकार के अनुसार यह वह मार्ग है, जिसमें व्यक्ति अपनी कमर को रज्जु से बांधकर रज्जु के सहारे आगे बढ़ता था। "रसकपिका" (स्वर्ण आदि की खदान) में इसी के सहारे नीचे गहन अंधकार में उतरा जाता था और रज्जु के सहारे ही पुनः बाहर आना होता था। ९. कीलकमार्ग—ये वे मार्ग थे, जहां स्थानस्थान पर खंभे बनाए जाते थे और पथिक उन खंभों के अभिज्ञान से अपने मार्ग पर आगे बढ़ता जाता था। ये खंभे उसे मार्ग भूलने से बचाते थे । विशेष रूप से ये मार्ग मरुप्रदेश में, जहां बालू के टीलों की अधिकता होती थी, वहां बनाए जाते थे। १०. अजमार्ग-यह एक ऐसा संकरा पथ होता था, जिसमें केवल अज (बकरी) या बछड़े के चलने जितनी पगडंडी मात्र होती थी। यह मार्ग विशेषतः पहाड़ों पर होता था। जहां बकरों और भेड़ों का यातायात होता था। इसे "मेंढपथ' भी कहा जाता था। ११. पक्षिपथ-यह आकाश-मार्ग था। भारुण्ड आदि विशालकाय पक्षियों के सहारे इस मार्ग से यातायात होता था। यह मार्ग सर्वसुलभ न भी रहा हो परन्तु कुछ श्रीमन्त या विद्याओं के पारगामी व्यक्ति इन विशालकाय पक्षियों का उपयोग वाहन के रूप में करते हों, ऐसा संभव लगता है। १२. छत्रमार्ग-यह एक ऐसा मार्ग था, जहां छत्र के बिना आना-जाना निरापद नहीं होता था। संभव है यह जंगल का मार्ग हो और जहां हिंस्र पशुओं का भय रहता हो। वे पशु छत्ते से डरकर इधर-उधर भाग जाते हों। १३. जलमार्ग-जहाज, नौका आदि से याता यात करने का मार्ग, जिसे “वारिपथ" भी कहा जाता है। १४. आकाशमार्ग-चारणलब्धि सम्पन्न मुनियों, विद्याधरों तथा मंत्रविदों के आनेजाने का मार्ग । इसे "देवपथ' भी कहा जाता था। (सूटी पृ १३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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