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________________ परिशिष्ट - १ ४।१. ४२. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि सयणासणादिसु जयंति । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितभोई IE अप्फासुयकय- कारित- अणुमय तसथावर हिंसाए, जणा Jain Education International I भोण हंदि ! अकुसला उ लिप्पंति' ॥ एसा हेउविसुद्धी, दिट्ठतो तस्स चेव य विसुद्धी । सुत्ते भणिया उ फुडा, सुत्तप्फासे उ इयमन्ना ॥ अग्गमि हवी हूयइ, आइच्चो तेण पीणिओ संतो । afres पाहियट्ठ तेजसहि परोहति ॥ कि दुब्भिक्खं जायइ ?, जइ एवं अह भवे दुरिट्ठे तु । कि जायइ सव्वत्था, दुब्भिक्खं अह भवे इंदो ॥ वासइ तो किं विग्धं, निग्धायाईहि जायए तस्स । अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए । कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावरणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुती मट्ठा ॥ तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुव्वविहियस्स । उदणं पुप्फफलं, निवत्तयंती इमं चऽन्नं ॥ जइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देंति पुप्फफलं । जं काले पुप्फफलं, ददंति गुरुराह अत एव * ॥ च गिहनिवासी उ । भण्णइ न जम्हा" || एस समत्ता उ निगमणं तेणं । साहुणोत्तिय, जेणं ते महुयरसमाणा ।। समणऽणुकंपनिमित्तं पुण्णनिर्मितं कोई भणेज्ज पागं करेंति सो उवसंहारविसुद्धी, वुच्चंति तम्हा दयाइगुणसुट्टिएहिं भमरोव्व अवहवित्तीहि । साहूहि साहिउ त्ति, उक्किट्ठे मंगलं धम्मो ॥ निगमणसुद्धी तित्यंतरावि धम्मत्थमुज्जया विहरे । भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति ॥ १. मुद्रित टीका में ४।१,२ ये दोनों गाथाएं भाष्य २, ३ के क्रमांक में हैं किन्तु दोनों चूर्णियों में ये निगा के रूप में (देखें टिप्पण दशनि ९१ ) । व्याख्यात हैं २ ३. ४. ४२७ ६-८ के लिए देखें टिप्पण दर्शनि ९५।३ । ९,१० के लिए देखें टिप्पण दर्शनि ९६।२ । ११ के लिए देखें टिप्पण दर्शानि ९७।१ । १२ के लिए देखें टिप्पण दर्शन ९९।१ । ५. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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