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परिशिष्ट - १
४।१.
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जं भत्त-पाण-उवगरण-वसहि सयणासणादिसु जयंति । फासुयमकयमकारियमणणुमतमणुद्दिसितभोई
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अप्फासुयकय- कारित- अणुमय तसथावर हिंसाए,
जणा
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भोण हंदि ! अकुसला उ लिप्पंति' ॥ एसा हेउविसुद्धी, दिट्ठतो तस्स चेव य विसुद्धी । सुत्ते भणिया उ फुडा, सुत्तप्फासे उ इयमन्ना ॥ अग्गमि हवी हूयइ, आइच्चो तेण पीणिओ संतो । afres पाहियट्ठ तेजसहि परोहति ॥ कि दुब्भिक्खं जायइ ?, जइ एवं अह भवे दुरिट्ठे तु । कि जायइ सव्वत्था, दुब्भिक्खं अह भवे इंदो ॥ वासइ तो किं विग्धं, निग्धायाईहि जायए तस्स । अह वासइ उउसमए, न वासई तो तणट्ठाए । कस्सइ बुद्धी एसा, वित्ती उवकप्पिया पयावरणा । सत्ताणं तेण दुमा, पुती मट्ठा ॥ तं न भवइ जेण दुमा, नामागोयस्स पुव्वविहियस्स । उदणं पुप्फफलं, निवत्तयंती इमं चऽन्नं ॥ जइ पगई कीस पुणो, सव्वं कालं न देंति पुप्फफलं । जं काले पुप्फफलं, ददंति गुरुराह अत एव * ॥ च गिहनिवासी उ । भण्णइ न जम्हा" || एस समत्ता उ निगमणं तेणं । साहुणोत्तिय, जेणं ते महुयरसमाणा ।।
समणऽणुकंपनिमित्तं पुण्णनिर्मितं कोई भणेज्ज पागं करेंति सो
उवसंहारविसुद्धी, वुच्चंति
तम्हा दयाइगुणसुट्टिएहिं भमरोव्व अवहवित्तीहि । साहूहि साहिउ त्ति, उक्किट्ठे मंगलं धम्मो ॥ निगमणसुद्धी तित्यंतरावि धम्मत्थमुज्जया विहरे । भण्णइ कायाणं ते, जयणं न मुणंति न कुणंति ॥
१. मुद्रित टीका में ४।१,२ ये दोनों गाथाएं भाष्य २, ३ के क्रमांक में हैं किन्तु दोनों चूर्णियों में ये निगा के रूप में (देखें टिप्पण दशनि ९१ ) ।
व्याख्यात हैं
२
३.
४.
४२७
६-८ के लिए देखें टिप्पण दर्शनि ९५।३ । ९,१० के लिए देखें टिप्पण दर्शनि ९६।२ । ११ के लिए देखें टिप्पण दर्शानि ९७।१ । १२ के लिए देखें टिप्पण दर्शन ९९।१ ।
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