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________________ दशवकालिक नियुक्ति १२३।६. सातवेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, पुंवेदमोहनीय, हास्यमोहनीय, रतिमोहनीय, शुभआयुष्य, शुभनाम और शुभगोत्र---ये सब धर्म के ही फल हैं। इसलिए धर्म ही मंगल है। यह प्रतिज्ञा और प्रतिज्ञाशुद्धि का विपक्षप्रतिषेध है। १२३१७. अजितेन्द्रिय, सोपाधिक मायावी और परिग्रही तथा हिंसक व्यक्ति भी पूजे जाते हैं तब तो अग्नि भी शीतल हो जाए। यह हेतु तथा हेतुविभक्ति का विपक्षप्रतिषेध है। १२३।८. बुद्ध, कपिल आदि तो औपचारिक रूप से पूजा के पात्र हैं। वास्तविक पूजा के पात्र तो जिनेश्वर भगवान् ही हैं । यह दृष्टांत-विपक्ष-प्रतिषेध नामक छठा अवयव है। १२३।९ अरिहंत भगवान तथा उनके मार्गानुवर्ती समचित्त साधु भी यहां दृष्टांत स्वरूप हैं । वे मुनि पाकरत गृहस्थों के घरों में अहिंसक वृत्ति से आहार की एषणा करते हैं । यह दृष्टान्तवाक्य है । १२३।१०. यहां एक तर्क उपस्थित होता है कि यदि गहस्थ अपने परिजनों के साथ मुनि को भी उद्दिष्ट करके आहार पकाता है तो उससे क्या? यह विषम दृष्टांत है, क्योंकि इससे साधुओं की अनवद्यवृत्ति का अभाव हो जाता है। यह आठवां अवयव है। नौवां अवयव है-दृष्टांतप्रतिषेध । जैसे-वर्षा ऋतु में सहज निष्पन्न तृण । १२३।११. अत: देवों और मनुष्यों के द्वारा पूजनीय होने के कारण धर्म ही शाश्वत मंगल है । यह प्रतिज्ञाहेतु का पुनर्वचन अर्थात् निगमन नामक दसवां अवयव है। १२४. यह द्रुमपुष्पिका की नियुक्ति संक्षिप्त में व्याख्यात है। इसका अर्थविस्तार अर्हत् और चतुर्दशपूर्वी बता सकते हैं। १२५. अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह जो उपदेश है, वह नय है।' १२६. सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर जो चारित्र और क्षमा आदि गुणों में स्थित है, साधु है, वह सर्वनयसम्मत होता है । दूसरा अध्ययन : श्रामण्यपूर्वक १२७. 'श्रामण्यपूर्वक' यह नामनिष्पन्न निक्षेप है । 'श्रामण्य' शब्द के चार निक्षेप हैं तथा 'पूर्वक' शब्द के तेरह निक्षेप हैं। १२८. श्रमण शब्द के क्रमश: चार निक्षेप ये हैं-१. नामश्रमण २ स्थापनाश्रमण ३. द्रव्यश्रमण ४. भावश्रमण । द्रव्यश्रमण के दो भेद हैं-आगमत: द्रव्यश्रमण और नोआगमत: द्रव्यश्रमण । भावश्रमण संयत मुनि ही हैं। १२९. जैसे मुझे दुःख अप्रिय है वैसे ही सब जीवों को है - ऐसा जानकर जो व्यक्ति न हिंसा करता है, न करवाता है तथा जो समता में गतिशील होता है, वह समण है । गाथा क्रियानय की अपेक्षा से व्याख्यात है। १. हारिभद्रीया वत्ति पत्र ८० में यह गाथा ज्ञानमय की अपेक्षा से तथा पत्र ८१ में यही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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