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________________ ८४ नियुक्तिपंचक १३०. सब जीवों में जिसके लिए कोई प्रिय या अप्रिय नहीं होता, वही 'समन'—समान मन वाला होता है। यह श्रमण का दूसरा पर्यायवाची नाम है । १३१. इसलिए जो सुमन वाला होता है, भाव से पापमन वाला नहीं होता, स्वजन-परजन तथा मान और अपमान में सम होता है, वह 'समण' है। १३२. जो मुनि सर्प के समान (एक दृष्टि), पर्वत के समान (कष्टों में अप्रकंपित), अग्नि के समान (अभेददृष्टि), सागर के समान (गंभीर और ज्ञान रत्नों से युक्त), नभस्तल के समान (स्वावलंबी), वक्ष के समान (मान-अपमान में सम), भ्रमर के समान (अनियतवृत्ति), मृग के समान (अप्रमत्त), पृथ्वी के समान (सहिष्णु), कमल के समान (निर्लेप), सूर्य के समान (तेजस्वी) और पवन के समान अप्रतिबद्धविहारी होता है, वही वास्तविक श्रमण है। १३३ मुनि को विष की तरह सर्व रसानुपाती, तिनिश की तरह विनम्र, पवन की तरह अप्रतिबद्ध, वंजुल की तरह विषघातक, कणेर की तरह स्पष्ट, उत्पल की तरह सुगंधित, भ्रमर की भांति अनियतवृत्ति, चूहे की भांति उपयुक्त देश-कालचारी, नट की तरह प्रयोजन के अनुरूप परिवर्तन करने वाला, कुक्कुट की भांति संविभागी और कांच की तरह निर्मल होना चाहिए। १३४,१३५. प्रव्रजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुक्त, तीर्ण, त्रायी, द्रव्य, मुनि, क्षान्त, दान्त, विरत, रूक्ष और तीरार्थी-ये श्रमण के पर्यायवाचक शब्द हैं। १३६. पूर्व शब्द के तेरह निक्षेप हैं-१. नाम २ स्थापना ३. द्रव्य ८. क्षेत्र ५. काल ६. दिशा ७. तापक्षेत्र ८. प्रज्ञापक ९. पूर्व १०. वस्तु ११. प्राभूत १२. अतिप्राभूत और १३. भाव । १३७. काम शब्द के चार निक्षेप हैं -नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । १३८. शब्द, रस, रूप, गंध, स्पर्श और मोहोदय में निमित्त बनने वाले पदार्थ द्रव्यकाम हैं। भावकाम के दो प्रकार हैं-इच्छाकाम और मदनकाम। १३९ इच्छा प्रशस्त भी होती है और अप्रशस्त भी (प्रशस्त इच्छा है - धर्मेच्छा, मोक्षेच्छा आदि । अप्रशस्त इच्छा है-युद्धेच्छा, राज्येच्छा आदि) । मदनकाम का अर्थ है- वेद का विपाकोदय । प्रस्तुत प्रसंग में मदनकाम का अधिकार है, धीरपुरुष उसका निरुक्त बतलाते हैं। १४०. विषयजन्य सुखों में आसक्त, कामराग में प्रतिबद्ध तथा अज्ञानी व्यक्तियों को धर्म से उत्क्रांत-दूर कर देने के कारण ये 'काम' कहलाते हैं । १४१. बुद्धिमान व्यक्ति 'काम' का अपर नाम रोग बतलाते हैं । क्योंकि जो व्यक्ति काम की अभिलाषा करता है, वह वास्तव में रोग की अभिलाषा करता है । १४२. पद के मुख्य रूप से चार प्रकार हैं-नामपद, स्थापनापद, द्रव्यपद और भावपद । प्रत्येक पद अनेक प्रकार का है, यह ज्ञातव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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