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परिशिष्ट-६ : कथाएं
४७१ खोज में घर से निकल पड़ा । आचार्य उस समय चंपा में विहरण कर रहे थे। बालक मनक भी चंपा में आ गया। आचार्य जब संज्ञा-भूमि में जा रहे थे तब उन्होंने बालक को देखा । बालक ने आचार्य को वंदना की। बालक को देखते ही आचार्य के मन में बालक के प्रति स्नेह उमड़ आया । बालक के मन में भी आचार्य के प्रति अनुरक्ति जाग गयी। आचार्य ने पूछा-'वत्स ! तुम कहां से आए हो?' बालक बोला-'राजगह नगरी से।' आचार्य ने पूछा - 'राजगह नगरी में तुम किसके पुत्र या पौत्र हो !' बालक ने कहा-'मैं शय्यंभव ब्राह्मण का पुत्र हैं।' आचार्य ने पूछा-'तुम यहाँ किस प्रयोजन से आए हो?' बालक बोला- मैं भी दीक्षित होना चाहता हं।' बालक ने आचार्य से पूछा - 'क्या आप मेरे पिता को जानते हैं ?' आचार्य ने कहा- मैं उनको जानता हूं.' बालक ने फिर पूछा 'वे अभी कहां हैं ?' आचार्य बोले- वे मेरे एक शरीरभूत अभिन्न मित्र हैं। तुम मेरे पास प्रबजित हो जाओ।' उसने अपनी स्वीकृति दे दी। आचार्य उसको साथ लेकर उपाश्रय में आए और सोचा-यह सचित्त उपलब्धि हई है।' उन्होंने बालक को प्रवजित कर दिया।
दीक्षित करने के बाद आचार्य ने अपने ज्ञान-बल से उसका आयुष्य जानना चाहा। ज्ञान से उन्होंने जाना कि इसका आयुष्य केवल छह मास का ही है। आचार्य ने सोचा-'इसका आयुष्य बहुत कम है अतः क्या करना चाहिए ?' वे जानते थे, चतुर्दशपूर्वी किसी भी कारण के उपस्थित होने पर अवश्य ही पूर्वो से ग्रंथ का नियूं हण करते हैं। अन्तिम दशपूर्वी भी अवश्य ही नियूं हण करते हैं । आचार्य ने सोचा-'मेरे सामने भी कारण उपस्थित हआ है अतः मुझे नियू हण करना चाहिए। उन्होंने पूर्वो से नि!हण करना प्रारम्भ कर दिया। नि!हण करते-करते विकाल की बेला आ गई, दिन कुछ ही अवशिष्ट रहा दस अध्ययनों का नियूंहण सम्पन्न हुआ, इसलिए इस ग्रन्थ का नाम 'दसवेआलिय' रखा मया ।' २ रत्नवणिक
एक वणिक दारिद्रय से अभिभूत था। एक बार वह घूमते हए रत्नद्वीप में पहुंचा। वहाँ उसने त्रलोक्य सुन्दर अमूल्य रत्नों को देखा। उनकी गठरी बांध बह घर की ओर चल पड़ा । लम्बे रास्ते में चोर आदि के भय से उन्हें सकुशल घर ले जाना सम्भव नहीं था। बुद्धि-कौशल से उसने एक उपाय किया। उन रत्नों को एक स्थान पर गाडकर अपने हाथ में जीर्ण-शीर्ण पत्थरों को लेकर पागल के वेश में 'यह रत्नवणिक जा रहा है', 'यह रत्नवणिक् जा रहा है'-यों चिल्लाता हुआ चोरों की पल्ली के पास से गूजरा । आगे जाकर पुनः लौटते हए उन्हीं शब्दों को दोहराता हुआ वहां से गुजरा। उसने तीन बार ऐसे ही किया। चोरों ने उसे देखा पर पागल समझकर उस ओर ध्यान नहीं दिया। चौथी बार वह गडे रत्नों को लेकर सुखपूर्वक चोर-पल्ली को पार कर गया । अटवी लंबी थी अतः वह तीव्र प्यास से अभिभूत हो गया । अटवी में उसने एक गड्ढा देखा । गड्ढे में थोड़ा पानी था। उस पानी में अनेक हिरण मरे पड़े थे। इसलिए सारा पनी वसामय हो गया था। उसने श्वास रोककर स्वाद न लेते हुए उस पानी को पीया । पास शांत हुई । वह रत्नों के साथ सुरक्षित रूप से घर पहुंच गया ।'
१. दशअचू पृ. ४,५, हाटी प. १०-१२
२. दशअचू पृ. ८, हाटी प. १९ ।
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