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________________ ५६२ नियुक्तिपंचक द्विर्मुख ने सागरव्यूह की रचना की। दोनों ही सेनाओं में युद्ध प्रारम्भ हो गया। मुकुट के प्रभाव से द्विर्मुख की सेना अजेय रही। प्रद्योत की सेना पलायन करने लगी। द्विमुख ने प्रद्योत को बंदी बनाकर नगर में प्रवेश कराया। प्रद्योत कारागृह में बंदी था। एक दिन उसने राजकन्या मदनमंजरी को देखा। वह उसमें आसक्त हो गया। कामाग्नि में जलते हुए चिंतातुर और संतप्त प्रद्योत की वह रात ज्यों-त्यों बीती। प्रात:काल द्विर्मुख प्रद्योत के स्थान पर गया। उसने प्रद्योत का म्लान और उदासीन मुखमंडल देखकर उसका कारण पूछा। पहले उसने कोई उत्तर नहीं दिया। बाद में आग्रह करने पर नि:श्वास छोड़ते हए उसने सारी बात बता दी। प्रद्योत ने कहा-'यदि मझे मदनमंजरी नहीं मिली तो मैं अग्नि में कद कर मर जाऊँगा। यदि मेरा कुशल-क्षेम चाहते हो तो मदनमंजरी का मेरे साथ विवाह कर दो।' द्विर्मुख ने शुभमुहूर्त देखकर प्रद्योत के साथ अपनी कन्या का विवाह कर दिया। कुछ दिन वहां रहकर प्रद्योत नववधू के साथ उज्जयिनी आ गया। कांपिल्यपुर में इन्द्रमहोत्सव था। राजा की आज्ञा से नागरिकों ने इन्द्रध्वज की स्थापना की। वह इन्द्रध्वज अनेक प्रकार के पुष्पों, घण्टियों तथा मालाओं से सज्जित किया गया। लोगों ने उसकी पूजा की। स्थान-स्थान पर नृत्य-गीत होने लगे। सारे लोग मोद-मग्न थे। इसी प्रकार सात दिन बीते। पूर्णिमा के दिन महाराज द्विर्मुख ने इन्द्रध्वज की पूजा की। सात दिन बीतने पर लोगों ने इन्द्रध्वज के आभूषण उतार लिए और काष्ठ को सड़क पर फेंक दिया। एक दिन राजा द्विमुख उसी मार्ग से निकला। उसने उस इन्द्रध्वज के काष्ठ को मलमूत्र में पड़ा देखा और देखा कि लोग उसका तिरस्कार करते हुए अतिक्रमण कर रहे हैं। संसार की अनित्यता देखकर उसे वैराग्य हो गया। वह प्रतिबुद्ध हो, पंच-मुष्टि लोच कर, प्रव्रजित हो गया। ५१. नमि राजर्षि भरत क्षेत्र में अवन्ती जनपद के सुदर्शनपुर नामक नगर में मणिरथ नामक राजा राज्य करता था। उसका भाई युगबाहु युवराज था। उसकी पत्नी मदनरेखा अनुपम रूप और लावण्य से युक्त थी। वह सुदृढ श्राविका थी। उसके सर्वगुणसम्पन्न एक पुत्र था, जिसका नाम चन्द्रयश था। एक दिन मणिरथ मदनरेखा को देखकर उसके रूप में आसक्त हो गया। वह सोचने लगा-'मेरा इसके साथ संयोग कैसे होगा? पहले मैं इसके साथ प्रीति बढ़ाऊं फिर इसके साथ रहकर इसके चित्त के भावों को जानकर यथायोग्य करूंगा'-ऐसा चिंतन करके उसने उसके साथ प्रीतिसम्बन्ध स्थापित करना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उसने पुष्प, कुंकुम, तंबोल, विविध वस्त्र एवं अलंकार भेजे। मदनरेखा के मन में कोई गलत भाव नहीं थे अतः उसने वे उपहार स्वीकार कर लिये। समय बीतने लगा। एक दिन मणिरथ ने मदनरेखा से कहा-'सुन्दरी ! यदि तुम मुझे स्वीकार कर लो तो मैं तुम्हें सारे राज्य की स्वामिनी बना दूंगा।' उसने कहा-'नपुंसकत्व, स्त्रीत्व और पुरुषत्व पूर्व कर्मों से प्राप्त होता है। तुमने पुरुषत्व प्राप्त किया है। यदि मैं तुम्हें स्वीकार न करूं तो भी भाई १. उनि. २६२, २६२/१, उशांटी. प. ३०३, उसुटी.प. १३५, १३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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