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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५६३ के युवराज की पत्नी हूं अतः मेरे राज्य के स्वामित्व का हरण कौन कर सकता है। जो सत्पुरुष होते हैं, वे मरना स्वीकार कर लेते हैं मगर इहलोक और परलोक के विरुद्ध कोई आचरण नहीं करते? हिंसा, असत्य-भाषण, स्तेय, परस्त्रीगमन से जीव नरक में जाते हैं इसलिए महाराज दुष्टभाव को छोड़कर आचार-मार्ग को स्वीकार करें।' मणिरथ ने सोचा कि युगबाहु के जीवित रहते यह अन्य पुरुष की इच्छा नहीं करेगी अतः विश्वास में लेकर युगबाहु को मार दूं, फिर बलपूर्वक इसे अपनी बना सकता हैं। इसके अतिरिक्त और कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता । समय बीतने लगा। एक दिन मदनरेखा ने चंद्र का स्वप्न देखा। उसने पति से इसका फल पूछा। युगबाहु ने कहा-'सकल पृथ्वीमंडल पर चांद के समान सन्दर तुम्हारे एक पत्र होगा।' वह गर्भवती हई। गर्भ के तीसरे महीने उसको दोहद उत्पन्न हुआ कि मैं तीर्थंकर और मुनियों की उपासना करूं तथा सतत तीर्थंकरों का चरित्र सुनूं। उसका दोहद पूरा हुआ। वह सुखपूर्वक गर्भ का वहन करने लगी। एक दिन बसन्त मास में यगबाह मदनरेखा के साथ उद्यान में क्रीडा करने आया। वे दोनों भोजन-पानी में इतने मस्त हो गए कि सूर्य अस्ताचल में डूब जाने पर भी उन्हें भान नहीं हुआ। रात हो गई। सर्वत्र अंधकार व्याप्त हो गया। इसलिए युगबाहु उसी उद्यान में ठहर गया। मणिरथ ने सोचा-'यह अच्छा अवसर है। युगबाहु नगर के बाहर है, उसके पास सहायक भी कम हैं, रात्रि का समय है तथा सघन अंधकार है अत: वहां जाकर यदि मार दूं तो नि:शंक होकर मदनरेखा के साथ रमण कर सकूँगा।' ऐसा सोच वह शस्त्र लेकर उद्यान में आया। युगबाहु भी रतिक्रीड़ा कर कदलीगृह में ही सो गया। चारों ओर प्रहरी पुरुष बैठे थे। मणिरथ ने उनसे पूछा-'युगबाहु कहां है'? उन्होंने बता दिया। मणिरथ ने कहा कि कोई शत्रु यहां युगबाहु का अभिभव न कर दे इस चिंता से मैं यहां आया हूं। ऐसा कह वह कदलीगृह में प्रविष्ट हो गया। युगबाहु ससंभ्रम उठा और भाई को प्रणाम किया। मणिरथ बोला-'चलो, नगर चलते हैं यहां रहना ठीक नहीं है।' युगबाहु उठने लगा। उसी समय कार्य-अकार्य की चिंता किए बिना, जनपरिवाद को सोचे बिना, परलोक के भय को छोड़कर विश्वस्त हृदय से मणिरथ ने तीक्ष्ण खड्ग से युगबाहु की गर्दन पर प्रहार किया। तीक्ष्ण प्रहार की वेदना से उसकी आंखें बंद हो गईं और वहीं धरती पर गिर पड़ा। मदनरेखा ने चीत्कार करते हुए कहा-'अहो ! अकार्य हो गया।' उसकी आवाज सुनकर खड्गधारी पुरुष वहां आ गए और पूछा-'यह क्या हुआ?' मणिरथ ने कहा-'प्रमाद से मेरे हाथ से यह खड्ग गिर गया। हे सुन्दरी! अब भय से क्या?' आरक्षक पुरुष मणिरथ की चेष्टा से उसके भावों को जानकर उसे बलपूर्वक में ले गये। उन्होंने चन्द्रयश को युगबाहु का वृत्तान्त बताया। करुण विलाप करता हुआ वह उद्यान में आया। वैद्यों ने व्रण-चिकित्सा की। थोड़ी देर में उसकी वाणी अवरुद्ध हो गई तथा नयनयुगल बंद हो गए। अंग निश्चेष्ट हो गए। खून का प्रवाह निकलने से उसका शरीर सफेद हो गया। मदनरेखा ने मरणासन्न स्थिति देखकर पति के कान में मधुर शब्दों में कहा–'महानुभाव! आप मानसिक समाधि रखें। किसी पर द्वेष न रखें। सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखें और चतुः शरण की शरण स्वीकार करें। अपने पूर्वाचीर्ण अनाचारों की गर्दा करें और कर्मोदय से आए इस कष्ट को समता से सहन करें । जो कर्म किए हुए हैं, वे भोगने ही पड़ते हैं। दूसरा तो निमित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org नगर
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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