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________________ निर्युक्तिपंचक भंग करना क्या आपके लिए उचित है? महापुरुष अपना जीवन छोड़ देते हैं लेकिन प्रतिज्ञा का लोप नहीं करते। इसलिए मन में विषयों के दारुण विपाकों का चिंतन करके जीवन की अस्थिरता का चिंतन करो।' राजीमती के प्रतिबोध से रथनेमि संबुद्ध हो गया । उपकारी मानकर राजीमती का अभिनंदन कर वह अपने मांडलिक साधुओं के पास चला गया। राजीमती भी आर्यिकाओं के पास चली गयी। अरिष्टनेमि भगवान ने ५४ दिन कम ७०० वर्ष तक केवली पर्याय का पालन किया। अनेक भव्य जीवों को प्रतिबोधित करके एक हजार वर्ष का आयुष्य पूर्ण करके आषाढ़ शुक्ला अष्टमी को रेवतपर्वत पर एक मास की तपस्या में पांच सौ छत्तीस श्रमणों के साथ सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए। रथनेमि और राजीमती भी सिद्ध हो गए। ६२. जयघोष - विजयघोष ६०४ वाराणसी नगरी में जयघोष और विजयघोष नामक दो ब्राह्मण काश्यपगोत्री थे। वे पट्कर्म में रत तथा चार वेदों के अध्येता थे। वे दोनों युगल रूप में जन्मे। एक बार जयघोष मुनि स्नान हेतु गंगा नदी के तट पर गया। वहां उसने सर्प द्वारा मेंढक को निगलते देखा। इतने में मार्जार-कुरर पक्षी वहां आया और सर्प को खाने लगा। कुरर द्वारा पकड़े जाने पर भी सांप मेंढ़क को खाने लगा । कम्पायमान सर्प को खाने में कुरर पक्षी आसक्त था । आपस के घात - प्रत्याघात को देखकर जयघोष मुनि प्रतिबुद्ध हो गया। गंगा को पार करके वह साधुओं के पास गया और वहां श्रमण बन गया । एक बार जयघोष मुनि ने एकरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार की। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए वे बनारस पहुंचे। उनके मासखमण का पारणा था अतः भिक्षा के लिए वे नगर में गए। उस दिन ब्राह्मण विजयघोष ने यज्ञ प्रारम्भ किया । दूर-दूर से बुलाए गए ब्राह्मणों के लिए विविध प्रकार की भोज्य-सामग्री तैयार की गयी। मुनि जयघोष भिक्षा हेतु यज्ञवाट में पहुंचे। वहां उन्होंने भिक्षा की याचना की । विजयघोष ने कहा- 'तुम वेदों और यज्ञ-विधि को नहीं जानते अतः तुम्हें भिक्षा नहीं मिलेगी । ' जयघोष मुनि ने यह बात सुनी। भिक्षा हेतु निषेध करने पर भी मुनि समचित्त रहे। उन्होंने भिक्षा हेतु नहीं अपितु याजकों को सही ज्ञान कराने के लिए कई नए तथ्य प्रकट किए। ब्राह्मण शब्द के नए अर्थ किए। जयघोष की प्रेरणा से विजयघोष भी सम्बुद्ध हो गया और उनके पास प्रव्रजित हो गया। आचारांग - निर्युक्ति की कथाएं १. जातिस्मरण (क) बसन्तपुर नगर का राजा जितशत्रु अपने पुत्र धर्मरुचि को राज्य सौंपकर तापस दीक्षा लेना चाहता था। धर्मरुचि ने माँ से पूछा- 'माँ ! पिताजी राज्यश्री को क्यों छोड़ रहे हैं ?' मां ने कहा- 'राज्य नरक आदि दुःखों का हेतुभूत है। इसे छोड़ तुम्हारे पिता शाश्वत सुख पाना चाहते हैं ।' पुत्र ने कहा—'यदि यह यथार्थ है तो मुझे इसमें क्यों फंसाया जा रहा है? मैं भी प्रव्रजित हो जाऊंगा।' वह १. उनि ४४०-४४, उसुटी. प. २७७-८२ । २. उनि ४६० - ७६, उसुटी. प. ३०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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