SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 734
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं स्वीकार कर लेना ।' अरिष्टनेमि ने सांवत्सरिक महादान के निमित्त से एक वर्ष तक घर में रहना स्वीकार कर लिया । नेमिकुमार ने महादान प्रारम्भ कर दिया। एक वर्ष पूरा होने पर माता-पिता की आज्ञा से श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन सहस्राम्र वन के उद्यान में देव और मनुष्यों की परिषद् में बेले की तपस्या में अरिष्टनेमि ने स्वयं पंचमुष्टि लोच किया। वे तीन सौ वर्ष तक अगारवास में रहे । अब रथनेमि राजीमती के पास आने-जाने लगे। उन्होंने कहा - 'सुतनु ! तुम विषाद मत करो । अरिष्टनेमि तो वीतराग हैं। वे विषयानुबंध करना नहीं चाहते। अब तुम मुझे स्वीकार करो । मैं जीवन भर तुम्हारी आज्ञा का पालन करूंगा।' राजीमती ने उत्तर देते हुए कहा- 'यद्यपि मैं नेमिनाथ के द्वारा परित्यक्ता हूं फिर भी मैं उनको नहीं छोडूंगी। मैं उनकी शिष्या बनना चाहती हूं इसलिए तुम इस अनुबंध का त्याग कर दो।' ६०३ कुछ दिनों बाद रथनेमि ने पुनः भोगों की प्रार्थना की। राजीमती का मन काम-भोगों से निर्विण्ण हो चुका था । उसे रथनेमि की प्रार्थना अनुचित लगी। उसे प्रतिबोध देने के लिए राजीमती ने मधु- घृत संयुक्त पेय पीया । फिर उसके सामने मदनफल खाकर वमन किया। वमन को एक स्वर्ण कटोरे में भर रथनेमि को उसे पीने के लिए कहा । रथनेमि ने कहा- 'वमन किए हुए को मैं कैसे पीऊं?' राजीमती ने कहा- 'क्या तुम इस बात को वास्तविक रूप में जानते हो ?' रथनेमि ने कहा--' इस बात को तो एक बालक भी जानता है।' राजीमती ने कहा- 'यदि यह बात है तो मैं भी अरिष्टनेमि द्वारा वान्त हूं। मुझे स्वीकार करना क्यों चाहते हो? धिक्कार है तुम्हें जो वान्त वस्तु को पीने की इच्छा करते हो। इससे तो तुम्हारा मरना श्रेयस्कर है।' रथनेमि जागृत होकर आसक्ति से उपरत हो गए। राजीमती दीक्षा की भावना से विविध प्रकार की तपस्या से शरीर को कृश करने लगी । भगवान् अरिष्टनेमि ५४ दिन अन्यत्र विचरण करके रेवन्तगिरी के सहस्राम्र वन के उद्यान में आए। आसोज की अमावस्या को शुभ अध्यवसायों द्वारा तेले की तपस्या में भगवान् को कैवल्य उत्पन्न हो गया । राजीमती ने स्वप्न में जिस दिव्य पुरुष को चार फल देते हुए देखा, वह स्वप्न साकार हो गया क्योंकि उसे कल्पवृक्ष के चार फलों की भांति चार महाव्रत (चातुर्याम धर्म) मिल गए। एक बार भगवान् अरिष्टनेमि रेवतक पर्वत पर समवसृत थे। साध्वी राजीमती अनेक साध्वियों के साथ भगवान् को वंदना करने आई। अचानक रास्ते में भयंकर वर्षा प्रारम्भ हो गयी। साथ वाली साध्वियां इधर-उधर गुफाओं में चली गयीं। राजीमती भी एक शून्य गुफा में प्रविष्ट हुई। वर्षा के कारण नियतिवश मुनि रथनेमि पहले से ही वहां बैठे हुए थे । अंधकार के कारण राजीमती को मुनि दिखाई नहीं दिए। राजीमती ने सुखाने के लिए अपने कपड़े फैलाए । राजीमती का निरावरण शरीर देखकर रथनेमि का मन विचलित हो गया। अचानक राजीमती ने रथनेमि को देख लिया । शीघ्र ही बाहों से अपने शरीर को ढंकती हुई वह वहीं बैठ गई । रथनेमि ने कहा- 'मैं तुम्हारे में अत्यन्त अनुरक्त हूँ । तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता अतः अनुग्रह करके मुझे स्वीकार करो और मेरी मनोकामना पूर्ण करो। फिर मानसिक समाधि होने पर हम दोनों पुनः संयम मार्ग स्वीकार कर लेंगे।' राजीमती ने साहसपूर्ण शब्दों में कहा - ' आप उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हैं। व्रत का इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy