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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ६०५ पिता के साथ प्रवजित होकर तापस बन गया और तापस क्रियाओं का यथावत् पालन करने लगा। एक दिन एक तापस ने आश्रम में घोषणा की कि कल अनाकुट्टी होगी इसलिए आज ही समिधा कुसुम, कन्द, फल-फूल आदि ले आएं। यह सुनकर धर्मरुचि तापस ने अपने पिता तापस से पूछा-'तात! यह अनाकुट्टी क्या है?' पिता तापस ने कहा-'अमावस्या आदि पर्व दिनों में कन्द,फल आदि का छेदन नहीं करना चाहिए। यह हिंसायुक्त क्रिया है।' यह सुनकर धर्मरुचि तापस ने सोचा कि यदि सदा के लिए अनाकुट्टी की जाए तो वह श्रेष्ठ है। एक बार अमावस्या के दिन आश्रम के निकटवर्ती मार्ग से विहार करते हुए साधुओं को उसने देखा। उनको देखकर धर्मरुचि तापस ने पूछा-'क्या आज आपके अनाकुट्टी नहीं है? आज आप अटवी में क्यों जा रहे हैं?' मुनि बोले-'हमारे तो यावज्जीवन ही अनाकुट्टी है।' यह कहकर मुनि आगे प्रस्थान कर गए। तापस धर्मरुचि ईहा, अपोह और विमर्श में निमग्न हो गया। चिंतन करतेकरते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। उसने जान लिया कि पूर्वजन्म में वह श्रामण्य का पालन कर देवलोक में सुखों का अनुभव कर यहां उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार उसने अपने जातिस्मरण ज्ञान से विशिष्ट दिशा से आगमन की बात जान ली। २. जातिस्मरण (ख) गणधर गौतम ने भगवान से पूछा-'मुझे केवलज्ञान की प्राप्ति क्यों नहीं होती?' भगवान ने कहा-'तुम्हारा मुझ पर अतीव स्नेह है, इसलिए कैवल्य का लाभ नहीं हो रहा है।' गौतम ने पूछा-'यह स्नेह क्यों है?' भगवान ने कहा-'गौतम अनेक जन्मों से हम दोनों का संबंध रहा है, यही स्नेह का कारण है।' गौतम को तब विशिष्ट दिशा से आगमन का ज्ञान हो गया। यह तीर्थंकर के कथन से होने वाला ज्ञान है? ३. जातिस्मरण (ग) मल्लिकुमारी ने विवाह के लिए समागत छह राजपुत्रों को जन्मान्तर का वृत्तान्त सुनाते हुए कहा-'हम सभी एक साथ प्रव्रजित हुए थे और एक साथ जयन्त विमान देवलोक में सुखानुभव किया था।' यह सुनकर वे छहों प्रतिबुद्ध हो गए और उन्हें विशिष्ट दिशा से आगमन का विज्ञान प्राप्त हो गया। यह अन्य श्रवण से उत्पन्न ज्ञान का उदाहरण है।' ४. दृष्टि का महत्व उदयसेन राजा के वीरसेन और सूरसेन नामक दो पुत्र थे। वीरसेन अंधा था। उसने गान्धर्व (गायन) आदि कलाएं सीख लीं। सूरसेन धनुर्विद्या आदि कलाओं में निपुण हो गया तथा लोक में उसकी प्रसिद्धि हो गयी। यह सुनकर वीरसेन ने राजा को निवेदन किया कि मैं भी धनुर्विद्या का अभ्यास करूंगा। राजा ने उसके आग्रह को देखकर धनुर्विद्या सीखने की आज्ञा दे दी। उपयुक्त उपाध्याय के उपदेश तथा अपनी प्रज्ञा के अतिशय से वह शब्दवेधी धनुर्धर बन गया। युवावस्था प्राप्त होने पर उसने राजा से शत्रु-सेना के साथ युद्ध की आज्ञा मांगी। राजा ने अनुमति दे दी। वह शत्रु १-३.आनि.६४, आटी.पृ. १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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