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निर्युक्तिपंचक
सेना के साथ लड़ने निकल पड़ा। शत्रु सैनिकों ने बिना हो हल्ला किए उसे अंधा समझकर पकड़ लिया । वह शब्दवेधी धनुर्धर होने पर भी अंधत्व के कारण कुछ नहीं कर सका। सूरसेन को यह ज्ञात हुआ। उसने राजा से आज्ञा प्राप्त की और अपनी धनुर्विद्या के बल से शत्रु सेना को अवष्टम्भित कर वीरसेन को मुक्त करा लिया ।
५. सकुंडलं वा वयणं न वत्ति
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पाटलिपुत्र नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उसके मंत्री का नाम रोहगुप्त था । वह जैन दर्शन का अच्छा ज्ञाता था। एक बार राजा जब सभामण्डप में उपस्थित हुआ तब उसने सभासदों के सम्मुख एक प्रश्न उपस्थित किया कि कौन-सा धर्म सबसे अच्छा है? प्रश्न के उत्तर में सभी ने अपने-अपने धर्मों की प्रशंसा की। मंत्री अभी तक चुप बैठा था। राजा ने मंत्री से पूछा - 'मंत्रिवर! आप अभी तक चुप कैसे बैठे हैं?' मंत्री ने कहा- 'राजन् ! जिस व्यक्ति को जो धर्म अच्छा लगता है, वह उस धर्म की प्रशंसा करेगा। इसलिए इससे किसी भी धर्म की अच्छाई का निर्णय नहीं किया जा सकता। यदि आपको इस जिज्ञासा का समाधान खोजना है तो स्वयं इसकी परीक्षा करें ।' राजा को यह सुझाव पसंद आया। उसने "सकुंडलं वा वयणं न व त्ति" संस्कृत के इस एक चरण को लिखवाकर नगर के मध्य लटका दिया। इसके बाद सभी धर्मावलम्बियों को सूचित किया कि जो इस चरण की पूर्ति करेगा उसको राजा यथेप्सित पुरस्कार देगा तथा उसका भक्त बन जाएगा। सभी धर्मावलम्बी सातवें दिन राजा के समक्ष समस्या-पूर्ति को लेकर उपस्थित हुए। सर्वप्रथम परिव्राजक ने बोलना शुरू किया
भिक्खं पविद्वेण मएज्ज दिट्ठ, पमदामुहं कमलविसालनेत्तं । वक्खत्तचित्तेण न सुटु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥
राजा ने इस गाथा को सुनकर कहा कि यह वीतरागता की सूचक नहीं है अतः उसका तिरस्कार करके उसे बाहर निकाल दिया। उसके बाद तापस ने अपनी समस्यापूर्ति पढ़नी शुरू की
फलोदणं म्हि गिहं पविट्ठो, तत्थासणत्था पमदा मि दिट्ठा । वक्खित्तचित्तेण न सुट्टु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥
उसके पश्चात् बौद्ध भिक्षु ने अपनी बात कहनी प्रारम्भ की
मालाविहारम्मि मएज दिट्ठा, उवासिया कंचणभूसियंगी। वक्खित्तचित्तेण न सुट्टु नायं, सकुंडलं वा वयणं न वत्ति ॥
इस प्रकार और भी अनेक धर्मावलम्बियों ने अपनी-अपनी दृष्टि से पाद पूर्ति की । जैन मुनि वहां उपस्थित नहीं थे। राजा ने अमात्य से पूछा कि जैन भिक्षु यहां उपस्थित क्यों नहीं हुए? मंत्री ने निवेदन किया- - 'राजन्! मैं खोजकर आपके समक्ष जैन साधुओं को प्रस्तुत करूंगा।' मंत्री ने राजकर्मचारियों को आदेश दिया कि जैन मुनियों को खोजो। उसी समय एक बालमुनि भिक्षा के
१. आनि. २२०, आटी. पृ. ११८ ।
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