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________________ ६१० नियुक्तिपंचक ३. कूलबाल ___ महाराज अजातशत्रु वैशाली के प्राकारों को भंग करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। अनेक प्रयत्नों के बावजूद भी प्रतिज्ञा सफल नहीं हो रही थी। एक व्यन्तरी ने महाराज से कहा-'राजन् ! यदि मागधिका वेश्या तपस्वी कूलबाल को अपने फंदे में फंसा ले तो आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो सकती है।' मागधिका वेश्या चंपा में रहती थी। महाराजा अजातशत्रु ने उसे बुला भेजा और अपनी बात बताई। वेश्या ने कार्य करने की स्वीकृति दे दी। कूलबाल तपस्वी का अता-पता किसी को ज्ञात नहीं था। गणिका ने श्राविका का कपट रूप बनाया। आचार्य के पास आने-जाने से उसका परिचय बढ़ा और एक दिन मधुर वाणी से आचार्य को लुभाकर तपस्वी का पता जान ही लिया। वह तपस्वी कूलबाल अपने शाप को अन्यथा करने के लिए एक नदी के किनारे कायोत्सर्ग में लीन रहता था। जब कभी आहार का संयोग होता तो भोजन कर लेता, अन्यथा तपस्या करता रहता। गणिका उसी जंगल में पहुंची,जहां तपस्वी तपस्या में लीन थे। उनकी सेवा-शुश्रूषा का बहाना बनाकर उसने वहीं पड़ाव डाला। मुनि को पारणे के लिए निमंत्रित कर औषध-मिश्रित मोदक बहराए। उनको खाने से मुनि अतिसार से पीड़ित हो गए। यह देखकर मागधिका ने कहा- 'मुनिवर ! अब मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी। आप मेरे आहार से रोगग्रस्त हुए हैं अतः मैं आपको स्वस्थ करके ही यहां से हटूंगी।' अब वह प्रतिदिन मुनि की वैयावृत्य, अंगमर्दन और भिन्न-भिन्न प्रकार से सेवा करने लगी। मुनि का अनुराग बढ़ता गया। दोनों का प्रेम पति-पत्नी के रूप में विकसित हुआ और मुनि अपने मार्ग से च्युत हो गए। ४. पोंडरीक एक रमणीय पुष्करिणी में अथाह जल था। स्थान-स्थान पर कीचड़ भी था। उसमें अनेक श्वेत शतदल जल से ऊपर उठे हुए थे। पुष्करिणी के बीच में एक विशाल रमणीय और विशिष्ट ल खिला हुआ था। चार पुरुष चारों दिशाओं से आए। वे उस श्वेत कमल को पाने के लिए ललचाने लगे। एक-एक कर चारों पुरुष उस पुष्करिणी में उतरने लगे। वे स्वयं को कुशल एवं पारगामी समझते थे। पर वे उस पुष्करिणी के कीचड़ में फंस गए। वे न तट पर आ पाए और न ही आगे बढ़ पाए। वे वहां कीचड़ में फंसे हुए खेद का अनुभव करने लगे और त्राण के लिए इधर-उधर देखने लगे। इतने में एक भिक्षु आया वह पानी में नहीं उतरा, तीर पर खड़े-खड़े ही उसने आह्वान किया-'हे पद्मवर पुंडरीक! ऊपर आओ, ऊपर आओ।' वह पद्मवर पुंडरीक ऊपर आ गया।' ५. आईक कुमार प्रतिष्ठानपुर नामक नगर था। वहां सामयिक नामक गाथापति अपनी पत्नी के साथ धर्मघोष आचार्य के पास प्रव्रजित हुआ। वह साधुओं के साथ तथा उसकी साध्वी पत्नी साध्वियों के साथ विहरण करने लगी। ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक बार दोनों एक ही गांव में आ गए। सामयिक १. सूनि.५७, कथा सं. १-३ तक की तीन कथाएं सूत्रकृतांग की चूर्णि और टीका में नहीं हैं। टीकाकार ने मूलादावश्यकादवगंतव्यानि का उल्लेख किया है। २. सूनि.१६२-६५। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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