SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 760
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं - जिसके मूल, कंद, त्वक्, पत्र, पुष्प, फल आदि को तोड़ने से समानरूप में चक्राकार टुकड़े होते हैं, जिसका पर्वस्थान चूर्ण-रजों से व्याप्त होता है अथवा जिसका भेदन करने पर पृथ्वी सदृश भंग होते हैं, वह अनन्तकाय वनस्पति कहलाती है । - जिसके पत्ते क्षीर मुक्त अथवा क्षीर शून्य तथा गूढ़ शिराओं वाले होते हैं, जिनकी शिराएं अलक्ष्यमाण होती हैं, जिनके पत्रार्ध की संधि दृग्गोचर नहीं होती, वे अनन्तजीव वनस्पति कहलाती हैं। (आनि १३९, १४० ) अणगार - साधु । गुत्ता गुत्तीहिं सव्वाहिं, समिया समितीहिं संजया । जयमाणगा सुविहिता, एरिसगा होंति अणगारा ॥ जो गुप्तियों से गुप्त, सभी समितियों से समित, संयत और यतना करने वाले होते हैं, वे अनगार कहलाते हैं । (आनि १०५ ) अगारं - गृहं तं जस्स नत्थि सो अणगारो । जिसके कोई अगार - घर नहीं है, वह अनगार कहलाता है । (दशअचू. पृ. ३७) अणाइल-अनाकुल। अणाइलेत्ति न धर्म देशमानो आतुरो भवति चोदितो वा आकुलव्याकुलीभवति । जो धर्म की देशना देता हुआ तथा प्रश्न पूछने पर आकुल-व्याकुल नहीं होता, वह अनाकुल (सूचू १ पृ. २३५) है । ० ६१९ अणाइलो णाम परीषहोपसगैः नक्रैः समुद्रवद् नाऽऽकुलीक्रियते । जैसे मगरमच्छ आदि जलजंतुओं से समुद्र आकुल नहीं होता, वैसे ही जो परीषहों और उपसर्गों से आकुल नहीं होता, वह अनाकुल 1 अणाजीवी - अनाजीवी । अणाजीवी ण तवमाजीवति लाभ-पूयणादीहिं । (सूचू १ पृ. ६३, ६४ ) जो लाभ, पूजा आदि के लिए तप से आजीविका नहीं करता, वह अनाजीवी है। (दशअचू पृ. ५३) ० अणायु - अनायु । अनायुरिति नास्यागमिष्यं जन्म विद्यते आगमिष्यायुष्कबंधो वा । जिसका आगामी जन्म नहीं होता, जिसके आगामी आयुष्य का बंध नहीं होता, वह अनायु होता है। (सूचू १ पृ. १४४) • न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यस्य स भवत्यनायुः । जिसके चारों प्रकार का (मनुष्य, देव, नरक और तिर्यञ्च) आयुष्य न हो, वह अनायु है । ( सूटी पृ. ९७ ) अणिदाण - अनिदान | माणुसरिद्धिनिमित्तं तव - संजमं न कुव्वइ से अनियाणे । जो मनुष्य - सम्बंधी ऋद्धि को प्राप्त करने के लिए तप, संयम नहीं करता, वह अनिदान होता है । (दशजिचू पृ. ३४५) Jain Education International ० अणिदाणो ण दिव्व- माणुस्सएसु कामभोगेषु आसंसापयोगं करेति जो देवसंबंधी तथा मानुषिक कामभोगों की आशंसा नहीं करता, वह अनिदान है। (सूचू १ पृ. ७६) अवुड अनिर्वृत। तत्तं पाणितं पुणो सीतलीभूतं आठक्कायपरिणामं जाति तं अपरिणयं अणिव्वुडं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy