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________________ नियुक्तिपंचक गर्म पानी भी ठंडा हो जाने पर पुन: अप्काय के परिणाम (सचित्त जल) वाला बन जाता है, वह अपरिणत और अनिर्वृत जल कहलाता है। (दशअचू पृ. ६१) अणिह-अनिभ। अनिहो नाम परीषहोपसगैर्न निहन्यते तव-संजमेसु वा संतपरक्कम ण णिहेति। जो परीषहों और उपसर्गों से पराभूत नहीं होता अथवा जो तप और संयम में अपनी शक्ति का गोपन नहीं करता, वह अनिभ है। (सूचू १ पृ. ५५) अणुक्कस-अनुत्कर्ष । अणुक्कसो णाम न जात्यादिभिर्मदस्थानैरुत्कर्ष गच्छति। जाति आदि मदस्थानों के आधार पर जो अहंकार नहीं करता, वह अनुत्कर्ष है। (सूचू १. पृ. ४५) अणुप्पेहा-अनुप्रेक्षा। अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअट्टेइ, णो वायाए। अनुप्रेक्षा का अर्थ है-मानसिक जाप, इसमें वचन का सर्वथा विसर्जन होता है। (दशहाटी प. ३२) • सुत्तऽत्थाणं मणसाऽणुचिंतणं। सूत्रार्थ का मन ही मन अनुचिंतन करना अनुप्रेक्षा है। (दशअचू पृ. १६) अणुभाव-अनुग्रह और विग्रह का सामर्थ्य । अणुभावो णाम शापानुग्रहसामर्थ्यम्। शाप देने और अनुग्रह करने का सामर्थ्य अनुभाव कहलाता है। (उचू पृ. २०८) अणुव्विग्ग-अनुद्विग्न । अणुव्विग्गो परीसहाणं अभीउ त्ति वुत्तं भवति। परीषहों में अभीत रहने वाला अनुद्विग्न कहलाता है। (दशजिचू पृ. १६८) अत्तगवेसि-आत्मगवेषी। अत्तगवेसगो णाम णरगेसु पडमाणं अत्ताणं गवेसतीति अत्तगवेसिणो।। जो नरक आदि दुर्गति में गिरती हुई आत्मा की गवेषणा करते हैं, वहां की उत्पत्ति के कारणों की मीमांसा करते हैं, वे आत्मगवेषी हैं। (दशजिचू पृ. २९२) अत्तपण्ण-आत्मप्रज्ञ। जेहिं इह अप्पीकता पण्णा ते अत्तपन्ना। जो प्रज्ञा को आत्मसात् कर लेते हैं, वे आत्मप्रज्ञ हैं। (आचू. पृ. २०१) अत्तव-आत्मवान्। णाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अस्थि सो अत्तवं। जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय हो, वह आत्मवान् है। (दशअचू पृ. १९७) अत्थविणय-अर्थविनय। अत्थनिमित्तं रायादीण विणयकरणं अत्यविणयो। धन के लिए राजा आदि का विनय करना अर्थविनय है। (दशअचू पृ. २०२) अदिट्ठधम्म-अदृष्टधर्मा। अदिट्ठधम्मे णाम सुतधम्म-चरित्तधम्मअजाणए भण्णइ। जो श्रुतधर्म और चारित्रधर्म को नहीं जानता, वह अदृष्टधर्मा है। (दशजिचू पृ. ३१७) अदीण-अदीन। अदीणो णाम जो परीसहोदए ण दीणो भवति अथवा रोगिवत् अपत्थाहारं अकामः असंजमं वज्जतीति अदीनः, जे पुण हृष्यंति इव ते अदीणा। जो परीषह आदि में कभी दीन नहीं होता अथवा जैसे रोगी अपथ्य आहार को छोड़ देता है वैसे ही जो असंयम का परिहार करता है तथा जो सदा प्रसन्न रहता है, वह अदोन है। (उचू पृ. १६५) अदीणवित्ति-अदीनवृत्ति। अदीणवित्ती नाम आहारोवहिमाइसु अलब्भमाणेसु नो दीणभावं गच्छइ। Jain Education International For Private & Personal Use Only - - www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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