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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५८७ देखा। उसने उसमें डुबकी लगाई। वह उत्तर-पश्चिम तीर पर जा निकला। वहाँ एक सन्दर कन्या बैठी थी। कुमार ने उसे देखा और सोचा- 'अहो ! मेरे पुण्य की साक्षात् परिणति है कि यह कन्या मुझे दिखाई दी है।' कन्या ने भी स्नेहपूर्ण दृष्टि से कुमार को देखा और वह वहां से चली गई। थोड़े ही समय में एक दासी वहाँ आई। उसने कुमार को वस्त्रयुगल, पुष्प, तंबोल आदि भेंट किए और कहा–'कुमार ! सरोवर के समीप जिस कन्या को तुमने देखा था, उसी ने यह भेंट भेजी है और आपको मंत्री के घर में ठहरने के लिए कहा है। आप वहाँ चलें और सुखपूर्वक रहें।' कुमार ने वस्त्र पहने, अलंकार किया और नागदेव मंत्री के घर जा पहुँचा। दासी ने मंत्री से कहा-'आपके स्वामी की पुत्री श्रीकान्ता ने इन्हें यहाँ भेजा है। आप इनका सम्मान करें और आदर से यहाँ रखें।' मंत्री ने वैसा ही किया। दूसरे दिन मंत्री कुमार को साथ ले राजा के पास गया। राजा ने उठकर कुमार को आगे आसन दिया और वृत्तान्त पूछा। भोजन से निवृत्त होकर राजा ने कहा-'कुमार ! हम आपका और क्या स्वागत करें। राजकुमारी श्रीकान्ता को आपके चरणों में भेंट करते हैं।' शुभ दिन में उनका विवाह सम्पन्न हआ। एक दिन कुमार ने श्रीकान्ता से पूछा- 'तुम्हारे पिता ने मेरे साथ तुम्हारा विवाह कैसे किया? मैं तो अकेला हूँ।' उसने कहा-'आर्यपुत्र ! मेरे पिता पराक्रमी हिस्सेदारों द्वारा उपद्रुत होकर इस विषम पल्ली में रह रहे हैं। वे नगर, ग्राम आदि को लूटकर दुर्ग में चले जाते हैं। मेरी माता श्रीमती के चार पुत्र थे। उनके बाद मैं उत्पन्न हुई इसलिए पिता का मुझ पर अत्यन्त स्नेह था। जब मैं युवती हुई तब एक बार पिता ने कहा- 'पुत्री! सभी राजा मेरे विरुद्ध हैं अत: जो घर बैठे ही तुम्हारे लिए उचित वर आ जाए तो मुझे कहना।' इसलिए मैं प्रतिदिन सरोवर पर जाती हूँ और मनुष्यों को देखती हूँ। आज मेरे पुण्यबल से तुम दिखलाई पड़े। यही सब रहस्य है।' कुमार श्रीकान्ता के साथ विषय-सुख भोगते हुए समय बिताने लगा। एक बार वह पल्लीपति अपने साथियों को साथ ले एक नगर को लूटने गया। कुमार उसके साथ था। गाँव के बाहर कमल सरोवर के पास उसने अपने मित्र वरधनु को बैठे देखा। वरधनु ने भी कुमार को पहचान लिया। असंभावित दर्शन के कारण वह रोने लगा। कुमार ने सान्त्वना दी और उसे गले लगाया। वरधनु ने कुमार से पूछा-'मेरे परोक्ष में तुमने क्या-क्या अनुभव किए?' कमार ने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया। कुमार ने कहा-'तुम अपना वृत्तान्त भी बताओ'। वरधनु ने कहा-'कुमार ! मैं तुम्हें एक वटवृक्ष के नीचे बैठे छोड़कर पानी लेने गया। मैने एक बड़ा सरोवर देखा। मैं एक दोने में जल भर कर तुम्हारे पास आ रहा था। इतने में ही महाराज दीर्घ के सन्नद्ध भट्ट मेरे पास आए और बोले-'वरधनु ! बताओ ब्रह्मदत्त कहाँ है?' मैंने कहा-'मैं नहीं जानता।' उन्होंने मुझे बहुत पीटा तब मैंने कहा-'कुमार को बाघ ने खा लिया।' भट्टों ने कहा-'वह प्रदेश हमें बताओ, जहाँ कुमार को बाघ ने खाया था।' इधर-उधर घूमता हुआ मैं कपट से तुम्हारे पास आया और तुम्हें भाग जाने के लिए संकेत किया। मैंने भी परिव्राजक द्वारा दी गई गुटिका मुंह में रखी और उसके प्रभाव से बेहोश हो गया। मुझे मरा हुआ समझकर भट्ट चले गये। बहुत देर बाद मैंने मुंह से गुटिका निकाली और मुझे होश आ गया। होश आते ही मैं तुम्हारी टोह में निकल पड़ा, परन्तु कहीं भी तुम नहीं मिले। मैं एक गाँव में गया। वहां एक परिव्राजक ने कहा- 'मैं तुम्हारे पिता का मित्र हूं। मेरा नाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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