SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 719
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निर्युक्तिपंचक वसुभाग है।' उसने कहा- ' 'तुम्हारे पिता धनु भाग गए। राजा दीर्घ ने तुम्हारी माता को मांतगों के मुहल्ले में डाल दिया।' यह सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआ । मैं काम्पिल्यपुर गया और कापालिक का वेश धारण कर उस मातंग बस्ती के प्रधान को धोखा दे माता को ले आया। एक गांव में मेरे पिता के मित्र ब्राह्मण देवशर्मा के यहां मां को छोड़कर तुम्हारी खोज में यहां आया हूं । इस प्रकार दोनों अपने सुख-दुख की बातें कर रहे थे। इतने में ही एक पुरुष वहां आया। उसने कहा - 'महाभाग ! तुम्हें यहाँ से कहीं अन्यत्र भाग जाना चाहिए। तुम्हारी खोज करते-करते राजा दीर्घ के मनुष्य यहाँ आ गए हैं।' इतना सुन दोनों— कुमार और वरधनु वहां से चल पड़े। गहन जंगलों को पार कर वे कौशाम्बी नगरी पहुंचे। वे गांव के बाहर एक उद्यान में ठहरे। वहां सागरदत्त और बुद्धि नाम के दो श्रेष्ठी - पुत्र अपने-अपने कुक्कुट लड़ा रहे थे । लाख मुद्राओं की बाजी लगी हुई थी । कुक्कुटों का युद्ध प्रारम्भ हुआ । सागरदत्त का कुक्कुट बुद्धिल्ल के कुक्कुट के साथ लड़ने में उत्साहित नहीं हुआ। सागरदत्त बाजी हार गया। इतने में ही दर्शक के रूप में खड़े वरधनु ने कहा - 'यह क्या बात है कि सागरदत्त का कुक्कुट सुजाति का होते हुए भी हार गया? यदि आपको आपत्ति न हो तो मैं परीक्षा करना चाहता हूं।' सागरदत्त ने कहा- 'महाभाग ! देखो-देखो मेरी लाख मुद्राएं चली गईं, इसका मुझे कोई दुःख नहीं है । परन्तु दुःख इतना ही है कि मेरे स्वाभिमान की रक्षा नहीं हुई । ' वरधनु ने बुद्धिल्ल के कुक्कुट को देखा। उसके पांवों में लोह की सूक्ष्म सूइयां बंधी हुई थीं। बुद्धिल्ल ने वरधनु को देखा। वह उसके पास आ धीरे से बोला- 'यदि तू इन सूक्ष्म सूइयों की बात नहीं बताएगा तो मैं तुझे अर्द्धलक्ष मुद्राएं दूंगा।' वरधनु ने स्वीकार कर लिया। उसने सागरदत्त से कहा - ' श्रेष्ठिन् ! मैंने देखा पर कुछ भी नहीं दिखा।' बुद्धिल्ल को ज्ञात न हो इस प्रकार वरधनु ने आंखों में अंगुलि - संचार के प्रयोग से सागरदत्त को कुछ संकेत किया। सागरदत्त ने अपने कुक्कुट के पैरों में सूक्ष्म सूइयां बांध दीं इससे बुद्धिल्ल का कुक्कुट पराजित हो गया। उसने लाख मुद्राएं हार दीं। अब सागरदत्त और बुद्धिल्ल दोनों समान हो गए। सागरदत्त बहुत प्रसन्न हुआ। उसने वरधनु को कहा - 'आर्य ! चलो, हम घर चलें ।' दोनों घर पहुंचे। उनमें अत्यन्त स्नेह हो गया। ५८८ एक दिन एक दास आया। उसने वरधनु को एकान्त में बुलाया और कहा - 'सूई का व्यतिकर न कहने पर बुद्धिल्ल ने जो तुम्हें अर्द्धलक्ष देने को कहा था, उसके निमित्त से उसने चालीस हजार का यह हार भेजा है।' यों कहकर उसने हार का डिब्बा समर्पित कर दिया । वरधनु ने उसको स्वीकार कर लिया । उसे ले वह ब्रह्मदत्त के पास गया। कुमार को सारी बात कही और उसे हार दिखाया । हार को देखते हुए कुमार की दृष्टि हार के एक भाग में लटकते हुए एक पत्र पर जा टिकी । उस पर ब्रह्मदत्त का नाम अंकित था। उसने पूछा- 'मित्र ! यह लेख किसका है'? वरधनु ने कहा- 'कौन जाने ? संसार में ब्रह्मदत्त नाम के अनेक व्यक्ति हैं, इसमें आश्चर्य ही क्या है?' वरधनु कुमार को एकान्त में ले गया और लेख को देखा। उसमें यह गाथा अंकित थी पत्थिज्जइ जइ वि जए, जणेण संजोयजणियजत्तेण । तह वि तुमं चिय धणियं, रयणवई मणई माणेउं ॥ अर्थात् यद्यपि रत्नवती को पाने के लिए अनेक प्रार्थी हैं, फिर भी रत्नवती तुम्हारे लिए For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy