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________________ निर्युक्तिपंचक देखा। उसका कुतूहल बढ़ा। परीक्षा करने के लिए उसने खड्ग से कुडंग पर प्रहार किया । एक प्रहार में झुरमुट नीचे गिर गया। उसके अन्दर से एक मुंड निकला। मनोहर सिर को देख उसे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। उसने सोचा- 'धिक्कार है मेरे व्यवसाय को।' उसने अपने पराक्रम की निन्दा की और बहुत पश्चात्ताप किया। बाद में उसने एक ओर ऊँचे बंधे हुए पाँव वाले कबंध को देखा । उसकी उत्सुकता और बढ़ी। आगे उसने एक उद्यान देखा। वहाँ एक सप्तभौम प्रासाद था। उसके चारों ओर अशोक वृक्ष थे । वह धीरे-धीरे प्रासाद में गया। वहां उसने एक सुन्दर स्त्री देखी। वह विकसित कमल के समान आंखों वाली तथा अत्यन्त सुन्दर थी । ब्रह्मदत्त ने पूछा - 'सुन्दरी ! तुम कौन हो ?' सुन्दरी ने कहा - 'महाभाग ! मेरा वृत्तान्त बहुत बड़ा है। तुम ही अपना परिचय दो कि तुम कौन हो ? कहाँ से आए हो?' कुमार ने उसकी मधुर वाणी को सुन कर कहा-' - सुन्दरी ! में पांचाल देश के राजा ब्रह्म का पुत्र हूं । मेरा नाम ब्रह्मदत्त है।' इतना सुनते ही वह महिला अत्यन्त हर्षित हुई। आनन्द उसकी आँखों से बाहर झाँकने लगा। वह उठी और उसके चरणों में गिरकर रोने लगी । कुमार का हृदय दया से भीग गया । 'देवी! रुदन मत करो' यह कह उसने उसे उठाया और पूछा - ' 'देवी ! तुम कौन हो ?' उसने कहा- 'आर्यपुत्र ! मैं तुम्हारे मामा पुष्पचूल राजा की लड़की हूं। एक बार मैं अपने उद्यान में कुँए के पास वाली भूमि में खेल रही थी । नाट्योन्मत्त नाम का एक विद्याधर वहाँ आया और मुझे उठाकर यहाँ ले आया । यहाँ आए मुझे बहुत दिन हो गए । मैं परिवार की विरहाग्नि में जल रही हूँ। आज तुम अचानक ही यहाँ आ गए। मेरे लिए यह अचिंतित स्वर्ण-वर्षा हुई है। अब तुम्हें देखकर मुझे जीने की आशा भी बंधी है' कुमार ने कहा - 'वह महाशत्रु कहाँ है? मैं उसके बल की परीक्षा करना चाहता हूँ ।' स्त्री ने कहा - 'स्वामिन्! उसने मुझे पठितसिद्ध शंकरी नामक विद्या दी और कहा - ' इस विद्या के स्मरण मात्र से यह विद्या सखी, दास आदि परिवार के रूप में उपस्थित होकर तुम्हारे आदेश का पालन करेगी। यह विद्या तुम्हारे पास आते हुए शत्रुओं का निवारण करेगी। उसे पूछने पर वह मेरी सारी बात बताएगी। मैंने एक बार उसका स्मरण किया। उसने कहा - ' यह नाट्योन्मत्त नाम का विद्याधर है। मैं उसके द्वारा यहां लाई गई हूँ। मैं अधिक भाग्यशाली हूँ। वह मेरा तेज सह नहीं सका इसलिए वह मुझे विद्या निर्मित तथा सफेद और लाल ध्वजा से भूषित प्रासाद में छोड़ गया। मेरा वृत्तान्त जानने के लिए अपनी बहिन के पास विद्या को प्रेषित कर स्वयं वंशकुडंग में चला गया। विद्या को साध कर वह मेरे साथ विवाह करेगा। आज उसकी विद्या सिद्ध होगी।' इतना सुनकर ब्रह्मदत्त कुमार ने पुष्पावती से उस विद्याधर के मारे जाने की बात कही। यह अत्यन्त प्रसन्न होकर बोली- 'आर्य ! आपने अच्छा किया। वह दुष्ट मारा गया।' दोनों ने गन्धर्व विवाह किया । कुमार कुछ समय तक उसके साथ रहा। एक दिन उसने दिव्यवलय का शब्द सुना । कुमार ने पूछा- 'यह किसका शब्द है?' उसने कहा- 'आर्यपुत्र ! विद्याधर नाट्योन्मत्त की बहन खण्डविशाखा उसके विवाह के लिए सामग्री लेकर आ रही है। तुम थोड़ी देर के लिए यहाँ से चले जाओ। मैं उसकी भावना जान लेना चाहती हूँ । यदि वह तुम में अनुरक्त होगी तो मैं प्रासाद के ऊपर लाल ध्वजा फहरा दूँगी, अन्यथा सफेद ।' कुमार वहां से चला गया। थोड़े समय बाद कुमार ने सफेद ध्वजा देखी। वह धीरे-धीरे वहाँ से चल पड़ा और गिरिनिकुंज में आ गया। वहाँ एक बड़ा सरोवर For Private & Personal Use Only ५८६ Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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