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________________ सूत्रकृतांग नियुक्ति भी प्रावरण स्वभाव वाला होना प्रावरणशील है। इसी प्रकार आभरणशील तथा भोजनशील होते हैं। अथवा जिस द्रव्य का जो स्वभाव है, वह द्रव्यशील है। भावशील के दो प्रकार हैं-ओघशील तथा आभीक्ष्ण्यसेवनाशील अर्थात अनवरतसेवनाशील। ८७. ओघशील-ओघ का अर्थ है-सामान्य । जो सावध योग से विरत अथवा विरतअविरत है, वह ओघशीलवान् है । जो अविरत है, वह अशीलवान् है। जो निरन्तर या बार-बार शील का आचरण करता है, वह आभीक्ष्ण्यसेवनाशील है। उसके दो प्रकार हैं-प्रशस्त तथा अप्रशस्त । प्रशस्त भावशील है-धर्म विषयक प्रवृत्ति, अनवरत अपूर्व ज्ञानार्जन करना तथा विशिष्ट तपस्या करना । अप्रशस्तभावशील है-अधर्म तथा क्रोध आदि में प्रवत्ति करना । आदि शब्द से अवशिष्ट कषाय तथा चोरी, अभ्याख्यान, कलह आदि गृहीत हैं। ८८. प्रस्तुत अध्ययन में कुशील अर्थात् परतीथिको का तथा जो कोई अविरत हैं, उनका प्रतिपादन है । 'सु' यह प्रशंसा और शुद्ध विषय के अर्थ में निपात है, जैसे-सुराष्ट्र । 'कु' दुगुंछा तथा अशुद्ध विषय के अर्थ में निपात है, जैसे--कुराज्य ।। ८९. जो अप्रासुक प्रतिसेवी होते हैं, वे धृष्टता से अपने आपको शील वादी कहते हैं। यथार्थ में जो प्रासुकसेवी होते हैं, वे शीलवादी होते हैं । जो अप्रासुक का उपभोग नहीं करते, वे शीलवादी ९०. जो गौतम-गोव्रतिक' हैं, जो रंडदेवता'-यत्र-तत्र बर देने वाले अथवा हाथ में चक्र रखने वाले हैं, जो वारिभद्रक-सेवाल खाने वाले अथवा शौचवादी हैं, जो अग्निहोत्रवादी- अग्नि से ही स्वर्गगमन की इच्छा रखने वाले तथा जलशौचवादी-भागवत परिव्राजक आदि हैं-ये सारे अप्रासुकभोजी होने के कारण कुशील हैं। गाथा में 'च' शब्द से स्वयूथिक पार्श्वस्थ आदि गृहीत आठवां अध्ययन: वोर्य ९१. 'वीर्य" शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव। द्रव्य वीर्य तीन प्रकार का है-सचित्त, अचित्त और मिश्र । सचित्त द्रव्यवीर्य के तीन भेद हैं१. द्विपद-अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव आदि का वीर्य अथवा स्त्रीरत्न का वीर्य अथवा जिस द्रव्य का जो वीर्य हो वह । १. गौवतिक मशकजातीय धर्मसम्प्रदाय के मोक्ष की स्थापना करते थे। वे बार-बार संन्यासी होते हैं। वे प्रशिक्षित लघु बैल को हाथ पैर धोने, स्नान करने में रत रहते थे । लेकर भिक्षा के लिए घर-घर घूमने वाले वे जल से बाह्य शुद्धि के साथ आंतरित शुद्धि होते हैं। भी मानते थे। २. टीकाकार ने 'चंडदेवगा' पाठ स्वीकृत किया ४ 'वीर्य' विषयक विशेष जानकारी के लिए देखें-सूयगडो १, आठवें अध्ययन का ३. जलशौचवादी सचित्त जल के उपयोग में आमुख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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