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________________ ३७० निर्युक्तिपंचक २. चतुष्पद - अश्वरत्न, हस्तिरत्न का वीर्य अथवा सिंह, व्याघ्र, शरभ आदि का वीर्य अथवा वहन करने, दौडने आदि का वीर्य । ३. अपद — गोशीर्षचन्दन आदि का शीत-उष्णकाल में उष्ण-शीतवीर्य परिणाम । ९२,९३. अचित्त द्रव्यवीर्य के तीन प्रकार हैं-- आहारवीर्य, आवरणवीर्य तथा प्रहरणवीर्य । ( ओषधि की शल्योद्धरण, व्रण-संरोहण, विषापनयन, मेधाकरण आदि जो शक्तियां हैं-वह रसवीर्य है ।) विपाकवीर्य के विषय में आयुर्वेद के चिकित्साशास्त्रों में जो वर्णन है, वह यहां ग्राह्य है । आहारवीर्य - आहार की शक्ति, जैसे -- सद्यः बनाए हुए 'घेवर' प्राणकारी, हृद्य तथा कफ का नाश करने वाले होते हैं । ० आवरणवीर्य -- कवच आदि के शस्त्र प्रहार को झेलने की शक्ति । प्रहरणवीर्य -- चक्र आदि शस्त्रों की प्रहार - शक्ति । क्षेत्रवीर्य -- क्षेत्रगत शक्ति, जैसे-— देवकुरु, उत्तरकुरु आदि क्षेत्र में उत्पन्न उत्कृष्ट शक्ति वाले होते हैं । अथवा दुर्ग आदि विशिष्ट क्षेत्र में अत्यधिक उल्लसित होता है, वह । अथवा जिस क्षेत्र में वीर्य की जाती है, वह क्षेत्रवीर्य है । 0 ० Jain Education International कालवीर्य -- एकान्त सुषमा आदि काल में अथवा विभिन्न ऋतुओं में विभिन्न द्रव्यों की विशिष्ट शक्ति । ९४,९५. भाववीर्य – वीर्यशक्ति से युक्त जीव में वीर्य विषयक अनेक प्रकार की लब्धियां होती हैं। उनके मुख्य तीन प्रकार हैं-औरस्यबल – शारीरिक बल, इन्द्रिय बल तथा आध्यात्मिक बल । ये तीनों बल बहुत प्रकार के होते हैं । १. शारीरिक बल के अन्तर्गत मनोवीर्य, वाक्वीर्य, कायवीर्य तथा आनापानवीर्य का समावेश होता है । यह वीर्य दो प्रकार का है— संभव और संभाव्य । २. इन्द्रिय बल - श्रोत्र आदि पांचों इन्द्रियों का अपने-अपने विषय के ग्रहण का सामर्थ्य | इसके भी दो भेद हैं— संभव और संभाव्य | १. ( क ) वर्षासु लवणममृतं शरदि जलं गोपयश्च हेमन्ते । शिशिरे चामलकरसो, घृतं वसन्ते गुडश्चान्ते || ( ख ) ग्रीष्मे तुल्यगुडां सुसैन्धवयुतां मेघावनद्धेऽम्बरे, सभी द्रव्य जिसका वीर्य व्याख्या की तुल्यां शर्करा शरद्यमलया शुण्ठ्या तुषारागमे । पिप्पल्या शिशिरे वसन्तसमये क्षौद्रेण संयोजितां, पुंसां प्राप्य हरीतकीमिव गदा, नश्यन्तु ते शत्रवः ।। ( सुटीपृ. १११ ) २. संभव, जैसे - तीर्थंकर और अनुत्तरोपपातिक देवों के मनोद्रव्य अत्यन्त पटु होता है । वे तथा मनः पर्यवज्ञान प्रश्नों का उत्तर द्रव्य मन से ही देते हैं । अनुत्तरोपपातिक देवों का सारा व्यवहार मन से होता है । संभाव्य, जैसे- जो आज ग्रहण करने में पटु नहीं है, उसकी बुद्धि का परिकर्म होने पर वह ग्रहण-पट हो जाता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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