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________________ दशवकालिक नियुक्ति ५९-६२. ६७,६८. ६९,७०. ७२. ७४. विभिन्न हेतुओं के द्वारा आत्मा के अस्तित्व ८८. धर्म उत्कृष्ट मंगल क्यों ? की सिद्धि। जिनशासन में पारमार्थिक धर्म की स्थापना कर्म में पौंडरीक और हिंगुशिव की प्रतिपालना। कथा। ८९/१-३. जिनशासन में ही शुद्ध धर्म का पालन क्यों? . द्रव्यानुयोग के आधार पर स्थापनाकर्म का मुनि की प्रासुक भिक्षाचर्या का उल्लेख । निरूपण । अप्रासुक भिक्षाचरी और उसका परिणाम । प्रत्युत्पन्नविनाश के प्रसग में गाधीवक ९२.९३. दष्टांत-शद्धि में भ्रमर का उदाहरण। आदि का उदाहरण । ९४-१०४. अनेक प्रश्नोत्तरों के द्वारा साधु की शुद्ध द्रव्यानुयोग के संदर्भ में प्रत्युत्पन्नविनाश का भिक्षाचर्या का उल्लेख । प्रतिपादन । नवकोटि शुद्ध भिक्षाचर्या का उल्लेख । आहरणतद्देश में अनुशिष्टि आदि चार भेदों दृष्टांत-शुद्धि और सूत्रनिर्दिष्ट उपसंहार का कथन और सुभद्रा का उदाहरण । वाक्य । आत्मकर्तृत्व की सिद्धि । १०७,१०८. द्रव्य और भाव विहंगम का स्वरूप । उपालम्भ में मृगावती की कथा का संकेत । १०९. कर्मगति के आधार पर विहंगम का वर्णन । आत्मा का अत्यन्त अभाव युक्त नहीं। ११०. विहायोगति आदि गति के आधार पर अर्थ और हेतु की पच्छा में कोणिक तथा विहंगम का स्वरूप। निश्रा वचन में गौतम का उदाहरण । १११. चलनकर्मगति के आधार पर विहंगम की नास्तिक को पूछा जाने वाला प्रश्न और व्याख्या। अन्यापदेश से वक्तव्यता । ११२. संज्ञासिद्धि से विहंगम का कथन । आहरणतहोस के भेद तथा उसके उदाहरणों ११३. . उपसंहार विशुद्धि का उल्लेख । का संकेत । ११४. अदत्त के अग्रहण में भ्रमर की उपमा । प्रतिलोम हेतु में अभय तथा गोविंदवाचक ११५. असंयत भ्रमर से श्रमण की उपमा असंगत । का उदाहरण। आत्म उपन्यास के अर्न्तगत पिंगल संन्यासी उपमा की एकदेशीयता का उल्लेख । ११६. का उदाहरण । ११७. भ्रमर अदत्त लेते हैं लेकिन मुनि अदत्त नहीं लेते। उपन्यास आहरण के भेदों का कथन । तद्वस्तुक में कार्पटिक का उदाहरण । ११८. सहज निष्पन्न आहार-ग्रहण में भ्रमर एवं उपन्यास के चौथे भेद 'प्रतिनिभ' में श्रमण की तुलना। परिव्राजक का उदाहरण । ११९. मुनि को 'मधुकरसम' कहने में आने वाली हेतु के यापक, स्थापक आदि चार भेदों का विप्रतिपत्ति का निराकरण । कथन । प्रथम अध्ययन में एषणा और ईर्या समिति यापक और स्थापक हेतु के उदाहरणों का के पालन का हेतु-निर्देश । संकेत । १२०/१,२. श्रमण और मधकर की समानता का व्यंसक और लूषक हेतु के उदाहरणों का उपसंहार द्वारा उल्लेख । संकेत । १२०/३,४. तीर्थान्तरीय साधओं एवं श्रमणों की चर्या धर्म के गुण तथा उसका महत्त्व । में अन्तर । दृष्टांत द्वारा धर्म के महत्त्व का कथन । १२१,१२२. साधु के लक्षण । ७७. ७८. १२०. ८६. ८७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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