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________________ ६५० नियंक्तिपंचक पाव-पाप। पभूतं पातयतीति पावं। जो बहुत नीचे गिराता है, वह पाप है। (दशअचू पृ. १३३) पावग-पाप। पावगं नाम असुभकम्मोवचओ घण-चिक्कणो भण्णइ। अत्यन्त स्निग्ध अशुभ कर्मों का उपचय पाप है। (दशजिचू पृ. १५८) पावग-पावक, अग्नि। पावं व हव्वं सुराणं पावयतीति पावकः। जो हव्य को देवताओं तक पहुंचाता है, वह पावक (अग्नि) है। (उचू पृ. ९९) पासंडि-पाषंडी। अट्ठविहकम्मपासादो घरपासादो वा डीणे पासंडी। अष्ट प्रकार के कर्म रूपी प्रासाद में अथवा गृह प्रासाद में रहने वाला पाषंडी है। __(दशअचू पृ. ३७) पासणिय-प्राश्निक। प्रश्नेन राजादिकिंवृत्तरूपेण दर्पणादिप्रश्ननिमित्तरूपेण वा चरतीति प्राश्निकः। राजा आदि के इतिहास-ख्यापन तथा दर्पण, अंगुष्ठ आदि विद्या के द्वारा आजीविका चलाने वाला प्राश्निक कहलाता है। __ (सूटी पृ. ४६) पासत्थ-पार्श्वस्थ। पार्वे तिष्ठंतीति पार्श्वस्थाः। जो ज्ञान आदि के पार्श्व में स्थित हैं, वे पार्श्वस्थ हैं। (सूचू १ पृ. ९७) पासाद-प्रासाद। प्रसीदंति अस्मिन् जनस्य नयनमनांसि इति प्रासादः।। जिसको देखकर मनुष्य के नयन और मन प्रसन्न हो जाते हैं, वह प्रासाद है। (उचू पृ. १८१) • पासादो समालको घरविसेसो। मंजिलों से युक्त गृह विशेष प्रासाद कहलाता है। (दशअचू पृ. ११७) पिंडोलग-पिंडोलक, भिक्षा में आसक्त संन्यासी। पिंडेसु दीयमाणेसु ओलंति पिंडोलगा। जो दीयमान पिंड-भिक्षा में आसक्त होते हैं, वे पिंडोलक हैं। (उचू पृ. १३८) पिट्ठमंसिय-चुगलखोर । पिट्ठीमंसं खायंतीति पिट्ठमंसितो। जो पीठ का मांस खाते हैं अर्थात् पीठ के पीछे अनर्गल बात कहते हैं, वे पृष्ठमांसी (चुगलखोर) होते हैं। (दचू प. ३९) • पिट्ठिमंसितो-परमुहस्स अवण्णं बोल्लेइ अगुणे भासति णाणादिसु । जो परोक्ष में किसी का अवर्णवाद कहता है, ज्ञान आदि विषयक अगुण की उद्भावना करता है, वह पृष्ठमांसी-चुगलखोर है। ... (दचू प. ७) पिसुण-पिशुन। प्रीतिशून्य इति पिशुनः। जो प्रीतिशून्य होता है, वह पिशुन है। (उचू पृ. १३३) पुंडरीय-पुण्डरीक। तिरिच्छगा मणुस्सा, देवगणा चेव होंति जे पवरा। ते होंति पोंडरीया तिर्यञ्च, मनुष्य और देवताओं में जो श्रेष्ठ होते हैं, वे पोंडरीक कहलाते हैं। (सूनि १४७) पुरिस-पुरुष। प्रीणाति चात्मानमिति पुरुषः। पूर्णों वा सुख दुःखानामिति पुरुषः। पुरि शयनाद्वा पुरुषः। १. जो आत्मा को प्रीणित करता है, वह पुरुष है। २. जो सुख-दुःख से प्रतिपूर्ण है, वह पुरुष है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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