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दशकालिक नियुक्ति
२०१. सिद्ध जीवस्स अत्थित्तं, नासतो भुवि भावस्स, सद्दो भवति' २०२. मिच्छा भवेउ सव्वत्था, जे केई पारलोइया । कत्ता चेवोपभोत्ता य, जदि जीवो न विज्जई ।।
सद्दादे वाणुमीयते । केवलो ॥
२०२।१. लोग सत्थाणि....
१. हवइ (हा, अ, ब ) 1
२. मुद्रित टीका की प्रति में गा. २०१,२०२ के आगे भी 'भाष्यम्' (हाटी प १२६) लिखा हुआ है। दोनों चूर्णियों में ये गाथाएं नियुक्ति के क्रम में व्याख्यात हैं । यह गाथा निम्न प्रमाणों के आधार पर नियुक्ति की प्रतीत होती है
( १ ) गा. १९३, १९४ में जीव के १३ द्वारों का उल्लेख है । निक्षेप, प्ररूपणा और लक्षण का वर्णन १९५-२०० तक की गाथाओं में हो गया अतः अब चौथे द्वार 'अस्तित्व' की व्याख्या इन दो गाथाओं में हुई है ।
( २ ) गा. २०१ की अगली भाष्यगाथा में टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि 'एतद्विवरणायैवाह भाष्यकार:' (हाटी प १२६) इससे स्पष्ट है कि २०१ गाथा निर्युक्ति की है और इसकी व्याख्या इस गाथा में भाष्यकार ने की है । ३. विज्जइ (हा, अ, ब ) ।
इस गाथा के आगे भी टीका में 'भाष्यम्' लिखा है । ऐसा प्रतीत होता है कि यह 'भाष्यम्' टीका की मुद्रित प्रति में संपादक द्वारा लिखा गया 1 अन्यथा टीका की व्याख्या तथा हस्त आदर्शो में कहीं भी यह
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गाथा भाष्य गाथा के रूप में संकेतित नहीं
है ।
इससे अगली गाथा स्पष्ट रूप से भाष्य की है क्योंकि भाष्य गाथा २९ (हाटी प १२७ ) की गाथा में २०२ की गाथा का अंतिम चरण 'जइ जीवो न विज्जई' पूरा चरण ले लिया है तथा २०२ की गाथा की ही व्याख्या की है । भाष्यकार की यह विशेषता है कि वे अनेक स्थलों पर नियुक्ति गाथा का पूरा चरण अपनी गाथा में ले लेते हैं । यदि २०२ की गाथा भाष्य की मानी जाये तो फिर भागा २९ (हाटी प १२७ ) की गाथा में भाष्यकार इतनी पुनरुक्ति नहीं करते । इस प्रमाण से चूर्णि की प्राचीनता के आधार पर हमने २०१,२०२ की गाथा को नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है । (देखें - १९६ तथा १९८ का टिप्पण) ।
४. २०२ की गाथा के बाद दोनों चूर्णियों में केवल 'लोगसत्थाणि' इतना ही संकेत मिलता है। मुनि पुण्यविजयजी ने पूरी गाथा उपलब्ध न होने पर भी इसे नियुक्ति गाथा के क्रमांक में जोड़ा है । (गा. १३९ अचू पृ ६८ ) । यह किसी भी हस्तप्रति में नहीं मिलती अत: इसे निगा के क्रम में नहीं रखा है ।
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