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________________ ४६ २०३. 'लोइगा वेइगा" चेव, तहा सामाइया विऊ । निच्चो जीवो पिहो देहा, इति सव्वे ववत्थिया || गिज्झती कायसंसितो | गिज्झती' कायसंसितो || २०४. फरसेण जहा वाऊ, नाणादीहिं तहा जीवो, २०५. अणिदिगुणं जीवं, दुष्यं खुणा । सिद्धा पासंति सव्वण्णू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥ २०६. कारण विभाग कारणविणास बंधस्स पच्चयाभावा । विरुद्ध अत्थस्सा ऽ पादुब्भावा ऽ विणासा यर । दारं ॥ १. लोइया वेइया (हा ) । २. ववट्टिया ( अ ) । इस गाथा का अचू में कोई उल्लेख नहीं है किन्तु जिचू में यह गाथा मिलती है। मुद्रित टीका की प्रति में इसके आगे 'भाष्यम्' लिखा है किन्तु यह नियुक्ति की गाथा है क्योंकि इसमें अन्यत्व नामक पाचवें द्वार की व्याख्या है तथा इससे अगली गाथा के प्रारंभ में टीकाकार ने स्पष्ट लिखा है कि एतदेव व्याचष्टे ( भा. ३१ हाटी प १२७) अर्थात् इसी गाथा की व्याख्या अगली भाष्यगाथा में की है । भाष्य की व्याख्या से भी वह गाथा स्पष्ट रूप से निर्युक्ति की प्रतीत होती है । भाष्य गाथा इस प्रकार हैलोगे अच्छेज्ज भेज्जो, वे सपुरीसदद्धगसियालो । समए ज्जह्मासि गओ, तिविहो दिव्वाइ संसारो ॥ ( भा. ३१ हाटी प १२७ ) ३. गिज्झई (हा), गेज्झती ( अचू ) । ४. २०४, २०५ की गाथा हाटी में भाष्यगाथा के Jain Education International निर्युक्तिपंचक क्रम में हैं किन्तु दोनों चूर्णियों में निर्युक्तिगाथा के रूप में व्याख्यात हैं । पिछली गाथाएं पूर्वलिखित प्रमाणों से तो निर्युक्तिगाथा हैं ही । साथ ही छंद रचना की दृष्टि से भी निर्युक्ति की सिद्ध होती हैं। टीका में २५, २८,३०,३३,३४ (हाटी प १२६, १२७ ) की गाथाएं भाष्यगाथा के क्रम में हैं । ये सभी श्लोक अनुष्टुप छंद में हैं । इनके अतिरिक्त अन्य सभी भाष्यगाथाएं आर्या छंद में हैं । इस प्रमाण से स्पष्ट है कि टीका की मुद्रित प्रति के आधार पर इनको भाष्यगाथा नहीं माना जा सकता । अतः इन पांच गाथाओं को ( २०१,२०५) हमने नियुक्तिगाथा माना है । ५. पिछली गाथाओं की भांति यहां भी गा. २०६ की व्याख्या में ११ भाष्य गाथाएं लिखी गयी हैं (भा. ३७-४७ हाटी प १२८१३१) । २०६वीं गाथा की व्याख्या में टीकाकार कहते हैं - " वक्ष्यति च नियुक्तिकारः जीवस्य सिद्धमेवं निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं (गा. २४०) व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः (हाटी प १२८) । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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