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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५१९ इसके रूप, उपशम और तेज की संपदा कैसी है? मैं कृतार्थ हो गया। मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ है इसीलिए ये महान् ऋषि भिक्षा के लिए यहां आए हैं। इनको भिक्षा देकर मैं स्वयं को कलुष रहित कर लूंगा।' ऐसा सोचकर रथकार ने पृथ्वी पर जानु रखकर उन्हें वंदना की और भक्त-पान लेकर उनके सामने गया। मुनि ने भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से शुद्ध भिक्षा जानकर उसे ग्रहण कर ली। उस रथकार ने शुद्ध दान देने से देवलोक का आयष्य बांध लिया। अत्यधिक भक्ति से हरिण की आंखों से आंसू निकलने लगे। वह रथकार और मुनि की ओर प्रसन्न और मंथर दृष्टि से बारबार देखता हुआ सोचने लगा-'अहो! यह वनछेदक धन्य है। इसका मनुष्य जन्म सफल हो गया है। मैं दुर्भाग्य एवं कर्मदोष से तिर्यंच जाति में उत्पन्न हुआ हूं। मैं इस महातपस्वी को दान देने से वंचित हूँ। मेरी इस तिर्यक् योनि को धिक्कार है।' इसी बीच तेज वायु से प्रहत होकर एक वृक्ष वनछेदक, बलदेव और हरिण के ऊपर गिरा। वे तीनों मरकर ब्रह्मकल्प के पद्मोत्तर विमान में उत्पन्न हुए। बलदेव भी सौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर विशिष्ट देवलोक में उत्पन्न हुए। देव बनकर बलदेव ने अवधिज्ञान से स्नेहपूर्वक कृष्ण को देखना प्रारम्भ किया। उसने अत्यंत दु:ख के साथ कृष्ण को तीसरी नारकी में देखा। शीघ्र ही वैक्रिय शरीर की विकुर्वणा करके वे कष्ण के पास गए। बलदेव ने दिव्य मणि की प्रभा का उद्योत करके जनार्दन को देखा। बलदेव ने कहा- 'अरे भातृवत्सल कृष्ण ! अब मैं तुम्हारे लिए क्या करूं?' कृष्ण ने कहा--'मैं पूर्वकृत कर्मों से उत्पन्न दुःख का अनुभव कर रहा हूं। कोई भी इसका प्रतिकार करने में समर्थ नहीं है।' तब बलदेव ने अपनी दोनों भुजाओं से कृष्ण को उठा लिया। आतप में नवनीत की भांति उनका शरीर पिघलने लगा। तब कृष्ण ने कहा- 'मुझे छोड़ो। मुझे बहुत कष्ट की अनुभूति हो रही है। तुम अब भरतक्षेत्र पिस लौट जाओ। वहां जाकर गदा, खड्ग, चक्र और शंखधारी, पीले वस्त्र पहने हुए तथा गरुड़ध्वज हलमुसल को धारण किए हुए नीले वस्त्र पहने हुए अपने आपको सब लोगों को दिखाना। बलदेव ने श्रीकृष्ण की बात को स्वीकार कर लिया! दिव्य विमान में आरूढ़ होकर बलराम ने भरत क्षेत्र में आकर श्रीकृष्ण और बलदेव के रूप की विकुर्वणा करके लोगों को दिखाया। विशेषतः शत्रुलोगों के सामने यह रूप दिखाया। बलदेव ने कहा-'तिराहे, चौराहे और चत्वरों पर हमारा प्रतिरूप स्थापित करो। हम स्वर्ग संहारकारी हैं। हम देवलोक से आए हैं और अब वहीं जा रहे हैं। वहां हम नाना प्रकार की क्रीड़ाओं में रत रहते हैं। द्वारिका नगरी हमारे द्वारा निर्मित है। पुनः हमने ही उसका संहार करके समुद्र में फेंक दिया है। इसलिए हम ही कारण पुरुष विधाता हैं । लोगों ने ससंभ्रम इस बात को स्वीकार कर लिया और जैसा कहा था वैसा किया। फिर परम्परा से वह बात प्रसिद्ध हो गयी। बलदेव भी ऐसा कर पुनः देवलोक चले गए। वहां से च्युत होकर अमम तीर्थंकर जो कृष्ण का जीव है उनके पास शासन में सिद्ध-बुद्ध एवं मुक्त होंगे। नगर के समृद्ध कुलों में भिक्षा की याचना उतनी दुष्कर नहीं है, जितनी अरण्य में तृणहारक और काष्ठहारक के यहां से भिक्षा लेनी। बलदेव ने जैसे याचना परीषह सहन किया वैसे ही सबको सहन करना चाहिए।' १. उनि.११५ उशांटी.प. १७७, उसुटी.प. ३७-४५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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