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________________ ४१३ ५४. पर्युषणा के ये गौण - एकार्थक नाम हैं- परिवसना, पर्युषणा, पर्युपशमन, वर्षावास, दशाश्रुतस्कंध निर्युक्ति प्रथम समवसरण, स्थापना तथा ज्येष्ठावग्रह । १. परिवसना - चार मास तक एक स्थान पर रहना । २. पर्युषणा – किसी भी दिशा में परिभ्रमण का वर्जन । ३. पर्युपशमना – कषायों से सर्वथा उपशान्त रहना । ४. वर्षावास — वर्षाकाल में चार मास तक एक ही स्थान पर रहना । ५. प्रथम समवसरण — नियत वर्षावास क्षेत्र में प्रथम आगमन । ६. स्थापना — ऋतुबद्ध काल के अतिरिक्त काल की मर्यादा स्थापित करना । ७. ज्येष्ठावग्रह - चार मास तक या छह मास तक एक स्थान पर रहना । ५५. स्थापना शब्द के छह निक्षेप है— नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । जिन द्रव्यों का परिभोग किया जाता है अथवा परिहार किया जाता है, वह द्रव्य स्थापना है । जिस क्षेत्र में स्थापना की जाती है, वह क्षेत्र स्थापना है तथा जिस काल में स्थापना की जाती है, वह काल स्थापना है । ५६. औदयिक आदि भावों की स्थापना भाव स्थापना है अथवा जिस भाव से जो स्थापना की जाती है, वह भाव स्थापना है । की दृष्टि से एकत्व और पृथक्त्व के ५७. द्रव्य के स्वामित्व, करण और अधिकरण आधार पर छह भेद होते हैं । इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का वर्णन करना चाहिए । ५८. काल है समय, आवलिका आदि । प्रस्तुत काल अधिकार में जो काल प्ररूपित है, मैं उसकी प्ररूपणा करूंगा । मासकल्प क्षेत्र से निष्क्रमण वर्षावास क्षेत्र में प्रावृड्काल में प्रवेश तथा उसकी समाप्ति होने पर शरद् ऋतु में उससे निर्गमन – ये विषय मैं कहता हूं । ५९. मुनि ग्रीष्म ऋतु में चार मास तथा हेमन्त में चार मास – इन आठ मासों में विहरण करता है । ये आठ मास समाधि के अनुसार एक अहोरात्र, पांच अहोरात्र अथवा न्यूनातिरिक्त मास हो सकते हैं ।" ६०. आषाढ महीने में मासकल्प रह चुकने के पश्चात् कारणवश वहीं वर्षावास करना पड़े तो न्यून आठ मास का ही विहरण काल होता है ( क्योंकि मृगसिर से ज्येष्ठ तक का ही विहरण हुआ है। इसी प्रकार जहां वर्षावास बिताया है वहां से यदि कुछेक कारणों से विहार नहीं हो पाता है तो न्यून आठ मास का विहरण होता है । वे कारण हैं-मार्गों का कीचड़मय हो जाना, वर्षा का बंद न होना, गांव पर शत्रु राजा का आक्रमण हो जाना आदि । [ ऐसी स्थिति में मृगशिर मास तक वहीं रहना होता है तब एक मास न्यून हो जाता है ] ६१. आषढी पूर्णिमा तक वर्षावासयोग्य क्षेत्र न मिलने पर ( उसकी गवेषणा करते-करते दिन अधिक बीत जाने पर ) अथवा साधु मार्गगत हैं-चलते-चलते वर्षावासयोग्य क्षेत्र में विलम्ब से पहुंचने पर, कार्तिक पूर्णिमा के पश्चात् साधक नक्षत्र न मिलने पर अथवा अन्य व्याघात के कारण कार्तिक पूर्णिमा से पूर्व विहरण करने पर अतिरिक्त आठ मास का विहरण होता है । १. देखें ---- गाथा ६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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