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________________ दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति ३४. जब भावसमाधि में चित्त आहित (युक्त) और स्थित होता है तब ये सभी स्थान चित्त में विशिष्टतर होते जाते हैं । इसलिए चित्तसमाधि के लिए प्रयत्न करना चाहिए। ३५. उपासक के चार प्रकार हैं-द्रव्योपासक, तदर्थोपासक, मोहोपासक तथा भावोपासक । द्रव्योपासक है-उपासक नाम-गोत्र कर्म के बंध के कारण भविष्य में होने वाला उपासक। तदर्थोपासक वह है, जो ओदन आदि द्रव्य के लिए उपासना करता है। ३६. जो कुप्रवचन, कुधर्म की उपासना करता है, वह मोहोपासक है । खेद है, वह उसमें (कुधर्म में) अपना श्रेय मानता है, परन्तु वहां उसका श्रेय नहीं होता। ३७. जो सम्यग्दृष्टि है, सम मन वाला है तथा श्रमणों की उपासना करता है, वह भावोपासक है । इसके दो गौण नाम हैं-उपासक और श्रावक । ३८. द्वादशांगी प्रवचन में द्विविध धर्म का प्रतिपादन है-अनगारधर्म और अगारधर्म (श्रावकधर्म) । ये दोनों केवली से प्रसूत हैं । 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'पूङ प्राणिप्रसवे' से प्रसूत शब्द निष्पन्न होता है। ३९. केवली धर्म सुनाते हैं. इसलिए वे श्रावक हैं । साधु और गृहस्थ उनकी उपासना करते हैं, इसलिए उपासक हैं । उपासक धर्म सुनते हैं अतः वे भी धावक हैं । इस प्रकार साधु और गृहस्थ दोनों श्रावक हैं । विशेष यह है कि मुनि नित्यकालिक उपासक और श्रावक नहीं होते, गृहस्थ ही दोनों हो सकते हैं। ४०. यह सिद्ध है कि जो कार्य निरवशेष रूप से होता है, वही कृत माना जाता है । (मुनि निरवशेष रूप में अर्थात् नित्यकालिक न सुनते हैं और न उपासना करते हैं।') इसलिए मुनि न उपासक होते हैं और न श्रावक । गृहस्थ ही श्रावक और उपासक दोनों होते हैं। (असम्पूर्ण श्रुत के कारण गृहस्थ नित्य श्रवण और उपासना करते हैं अतः वे श्रावक हैं ।) __ ४१. (प्रतिमा शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव) । द्रव्य प्रतिमा के तीन भेद हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र । संयतप्रतिमा-प्रव्रज्या लेने के इच्छुक गृहस्थ अथवा उत्प्रव्रजित व्यक्ति का द्रव्य लिंग । जिनप्रतिमा तीर्थंकर की प्रव्रज्या । भावप्रतिमा-जिन प्रतिमाओं के जो गुण कहे गये हैं, उनको यथार्थरूप में धारण करना । ४२. भावप्रतिमा के दो प्रकार हैं-भिक्षप्रतिमा और उपासकप्रतिमा। भिक्षप्रतिमा के बारह तथा उपासकप्रतिमा के ग्यारह प्रकार हैं। भिक्ष प्रतिमाओं का वर्णन आगे किया जाएगा। उपासक प्रतिमाओं का वर्णन यहां करूंगा। ४३. उपासक और साधुओं के गुणों (प्रतिमाओं) का पृथक्-पृथक् निर्देश करने से ये साधु हैं तथा ये उपासक हैं, इस प्रकार सुखपूर्वक जान लिया जाता है। यह गृहस्थ धर्म है और यह साधुधर्म-यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है । साधुओं के लिए तप और संयम परम संवेग के साधन हैं। १. मुनि जब केवलज्ञानी हो जाते हैं, तब वे चतुर्दशपूर्वी हो जाते हैं तब किसी का नहीं किसी की उपासना नहीं करते और जब सुनते । वे कृतकृत्य हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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