SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 541
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१० नियुक्तिपंचक २६. ज्ञात, गणित, गुणित और गत-ये सारे शब्द एकार्थक हैं। इसलिए जो धर्म-गणिसंपदाओं का ज्ञायक होता है, वह ज्ञानी गणी कहलाता है। २७. आचारांग को पढ़ने पर श्रमणधर्म ज्ञात होता है। इसलिए आचारधर-आचारांग को जानने वाला प्रथम गणिस्थान कहलाता है। २८. जो गणसंग्रहकारक तथा उपग्रहकारक'-दोनों होता है। वह गण को धारण करने में समर्थ होता है। उसी का प्रस्तुत में प्रसंग है। गणिसंपदा के छह निक्षेप हैं-नामसंपदा, स्थापनासंपदा, द्रव्यसंपदा, क्षेत्रसंपदा, कालसंपदा, भावसंपदा । प्रस्तुत में द्रव्य आदि चार संपदाओं का प्रसंग है। २९. संपदा के दो प्रकार हैं-द्रव्यसंपदा और भावसंपदा। (इसी प्रकार क्षेत्रसंपदा और कालसंपदा भी है।) द्रव्यसंपदा है-शरीरसंपदा। भावसंपदा के छह प्रकार हैं-औदयिक छह भाव । संग्रहपरिज्ञा के छह निक्षेप हैं-(नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।) ३०,३१. जैसे गजकुल में उत्पन्न हस्ती अर्थात् अरण्यहस्ती अपने शरीर से उद्गत विशाल दांतों से अश्रान्त होता हुआ गिरि, कंदरा, कटक तथा विषम दुर्ग-स्थानों में उनको वहन करता है, वैसे ही प्रवचन-भक्ति से ओतःप्रोत, साधार्मिक वात्सल्य से परिपूर्ण, अशढभाव से युक्त तथा गणिसंपदाओं से संपन्न गणी असमर्थ साधु-संघ को अनार्य क्षेत्र, विषम काल, विषम पथ और दुर्ग में सुखपूर्वक वहन करता है। ३२. चित्त शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । इसी प्रकार समाधि शब्द के भी चार निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । ३३. द्रव्यचित्त है-जीव। चित्तोलादक द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों में चित्त उत्पन्न होता है, वह भी द्रव्यचित्त है। भावचित्त है-ज्ञान आदि में सुसमाधि तथा ध्रुवयोग। ३३/१. अकुशल योगों का निरोध तथा कुशल योगों की उदीरणा-यह भी भावचित्त है । समाधि के ये चार प्रकार हैं। ३३/२. जिस द्रव्य से समाधि होती है, वह द्रव्य अथवा जिन द्रव्यों का अवलम्बन पाकर समाधि प्राप्त होती है, वह द्रव्यसमाधि है। भावसमाधि के चार प्रकार हैं-दर्शन, ज्ञान, तप और चारित्र। १. इसके चार विकल्प होते हैं १. कुछ गणसंग्रहकारक होते हैं, उपग्रहकारक __ नहीं होते। २. कुछ उपग्रहकारक होते हैं, गणसंग्रहकारक नहीं होते। ३. कुछ दोनों होते हैं। ४. कुछ दोनों नहीं होते। २. णओ--णउत्ति नीतिर्नयः अहिगार इत्यर्थः -दश्रुचू प १७ । ३. द्रव्यसंग्रहपरिज्ञा-संघ के लिए वस्त्र, पात्र आदि की याचना करना अथवा उनकी उपलब्धि के उपाय जानना । क्षेत्रसंग्रहपरिज्ञा-पथ (गमन) की विधियों को जानना। योग्य, अयोग्य क्षेत्र को जानना। कालसंग्रहपरिज्ञा-दुभिक्ष आदि की विधियों को जानना। भावसंग्रहपरिज्ञा-ग्लान आदि की सेवा-विधि को जानना। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy