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________________ परिशिष्ट ६ : कथाएं ५२१ थी। वह बहुत सुन्दर थी अतः राजा ने उसे अपने अंत:पुर में रख लिया। उस वेश्या के कालवैशिक नामक एक पुत्र हुआ। वेश्या की एक पुत्री भी थी,जिसका विवाह हतशत्रु राजा के साथ हुआ। एक बार कालवैशिक कुमार श्रमणों के पास दीक्षित हो गया। दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकृत की। विहार करते हुए कालवैशिक मुनि अपनी बहिन की ससुराल मुद्गशैलपुर पहुंचे। वहां उनके अर्श (मस्सा) रोग उत्पन्न हो गया। रोग के कारण मुनि बहुत पीड़ित थे। पीड़ा देखकर बहिन ने वैद्य से उपचार पूछा। वैद्य ने कुछ दवाइयां दी और कहा कि आहार के साथ इस औषध को मिलाकर मुनि को भिक्षा में दे देना। उसने मुनि को औषध मिश्रित आहार भिक्षा में दे दिया। मुनि ने गंध से जान लिया कि मोह के वशीभूत हो मेरी बहिन ने औषध मिश्रित आहार बहराया है तथा मेरे निमित्त हिंसा की है। मुनि ने चिंतन किया कि ऐसे जीवन से क्या लाभ? ऐसा चिन्तन करके मुनि ने मुद्गशैल शिखर पर भक्त-प्रत्याख्यान अनशन स्वीकार कर लिया। कालवैशिक मुनि जब बालक थे तब उन्होंने रात्रि में सियार के शब्द सुनकर अपने व्यक्तियों से पूछा-'यह आवाज किसकी है?' व्यक्तियों ने उत्तर दिया-'ये सभी जंगली सियार हैं।' कुमार ने सियार को बांधकर लाने की आज्ञा दी। राजपुरुष सियार को पकड़कर ले आए। कुमार कालवैशिक उसको पीटने लगा। पीटने से सियार ‘खी, खी' की आवाज करने लगा। आवाज सुनकर कुमार को बहुत प्रसन्नता हुई। इस प्रकार अत्यधिक पीटने से सियार मर गया। अकाम निर्जरा के कारण वह व्यन्तर देव के रूप में पैदा हुआ। ___ व्यन्तर देव ने अनशन में स्थित कुमार कालवैशिक मुनि को देखा तो तीव्र वैर उत्पन्न हो गया। उसने वैक्रिय शक्ति से सियार के बच्चों की विकुर्वणा की। अपने बच्चों सहित वह सियार रूप देव खी-खी' शब्द करके मुनि के शरीर को नोंचने लगा। इधर राजा ने जब मुनि के भक्त-प्रत्याख्यान की बात सनी तो राजपरुषों को रक्षा के लिए भेज दिया। राजपुरुष वहां रहते तो देव चला जाता। जब आवश्यक कार्य के लिए वे जाते तो 'खी-खी' शब्द करता हुआ वह देव रूप सियार मुनि के शरीर को खाने लगता। इस प्रकार मुनि ने रोग परीषह को समता-पूर्वक सहन किया। १९. तृणस्पर्श परीषह श्रावस्ती नगरी में जितशत्रु राजा था। राजकुमार का नाम भद्र था। दीक्षित होकर उसने एकलविहार प्रतिमा स्वीकार की। विहार करते हुए एक बार वह वैराज्य में पहुंचा। गुप्तचर समझकर सैनिकों ने उसे पकड़ लिया। परिचय पूछने पर मुनि मौन रहे अत: सैनिकों ने मुनि को बहुत पीटा। शरीर लहुलुहान हो गया, फिर सैनिकों ने उस पर नमक छिड़क कर घास से वेष्टित कर छोड़ दिया। तब रक्त मिश्रित दर्भ के कारण उसे अत्यन्त वेदना होने लगी। उसने उस परीषह को समभावपूर्वक सहन किया। १. उनि.११६, उशांटी.प.१२०, १२१, उसुटी.प.४७। २. उनि.११७, उशांटी.प.१२२, उसुटी.प.४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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