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निर्युक्तिपंचक
रानी ने काम भोगों की असारता पर मार्मिक प्रकाश डाला। राजा का मन विरक्त हो उठा। राजा और रानी दोनों दीक्षित हो गए। कालान्तर में उन छहों को कैवल्य उत्पन्न हो गया और वे निर्वाण को प्राप्त हो गए।
५८. राजर्षि संजय
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काम्पिल्य नगर में संजय नाम का राजा राज्य करता था। एक बार वह मृगया के लिए निकला। उसके साथ चारों प्रकार की सेनाएं थीं। वह घोड़े पर सवार होकर केशर उद्यान में गया। वह मृगों को खदेड़ कर अपने साथ ले गया । एकत्रित मृगों को वह रसलोलुप राजा संत्रस्त कर मारने लगा। उस उद्यान में गर्दभालि अनगार ध्यान कर रहे थे। राजा ने सोचा यहां के मृगों को मारकर मैंने मुनि की आशातना की है। वह तत्काल घोड़े से उतरा और मुनि के पास गया। मुनि के पास बद्धाञ्जलि होकर वह बोला- 'भगवन् ! मुझे क्षमा करें।' मुनि मौन धारण किए हुए थे अतः कुछ नहीं बोले । राजा भयभीत हो गया। उसने सोचा- 'यदि मुनि क्रुद्ध हो गए तो वे अपने तेज से समूचे विश्व को नष्ट कर देंगे।' राजा ने पुनः कहा- 'मैं कांपिल्यपुर का राजा हूं। मेरा नाम संजय है। मैं आपकी शरण में आया हूं। आप मुझे अपने तपोजनित तेज से न जलाएं।'
मुनि शांत भाव से बोले - ' राजन् ! मैं तुम्हें अभयदान देता हूं। तुम भी अभयदाता बनो । पानी के बुदबुदे के समान क्षणभंगुर इस जीवन में अपने मरण को जानकर भी तुम हिंसा में क्यों आसक्त बन रहे हो ?' राजा ने मुनि की धर्मदेशना सुनी और विरक्त हो गया । समग्र वैभव युक्त राज्य को छोड़कर उसने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । अनेक वर्षों तक तपश्चरण कर राजर्षि संजय सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।
५९. मृगापुत्र
सुग्रीव नगर में बलभद्र नाम का राजा राज्य करता था । उसकी अग्रमहिषी का नाम मृगावती था। उनके एक पुत्र हुआ, जिसका नाम बल श्री रखा गया। वह लोक में मृगापुत्र नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह बुद्धिमान, वज्रऋषभसंहनन वाला तथा तद्भवमुक्तिगामी था । युवा होने पर उसका पाणिग्रहण हुआ ।
एक बार वह पत्नियों के साथ प्रासाद के झरोखे में बैठा क्रीड़ा कर रहा था । राजमार्ग से लोग आ जा रहे थे । स्थान-स्थान पर नृत्य संगीत की मंडलियां आयोजित थीं । एकाएक उसकी दृष्टि राजमार्ग पर मंदगति से चलते हुए निर्ग्रन्थ पर जा टिकी। मुनि श्रुत के पारगामी, धीर, गंभीर एवं तप, नियम और संयम के धारक थे। मुनि के तजोदीप्त ललाट, चमकते हुए नेत्रों तथा तपस्या से कृश शरीर को वह अनिमेष दृष्टि से देखता रहा । मुनि को देखकर 'पहले भी मैंने ऐसा रूप कहीं देखा है ' - यह विचार करते-करते उसे जातिस्मृति ज्ञान उत्पन्न हो गया। जातिस्मृति से उसकी अतीत की सारी स्मृतियां ताजा हो गयीं। उसने जान लिया कि पूर्वभव में वह श्रमण था । उसका मन संसार १. उनि ३५६ - ६६, उशांटी. प. ३९५, ३९६, उसुटी.प. २०४, २०५
२. उनि ३८८-३९८ ।
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