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________________ ६४८ नियुक्तिपंचक पापकर्म को जानकर उस पाप को नहीं करना प्रत्याख्यान परिज्ञा है ।(दशजिचू.पृ. ११६) पच्चक्खायपावकम्म-प्रत्याख्यात पापकर्मा । पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति। जो आस्रव-द्वारों का निरोध कर देता है, वह प्रत्याख्यातपापकर्मा है। (दशजिचू.पृ. १५४) पच्चाजाति-प्रत्याजाति । जत्तो चुओ भवाओ, तत्थेव पुणो विजह हवति जम्मं सा खलु पच्चाजाति.....। एक भव से च्युत होकर पुनः उसी में जन्म लेना प्रत्याजाति है। (दनि.१३२) पडिभा-प्रतिभा। पभणति वा पतिभा श्रोतणां संशयोच्छेत्ता। जो श्रोताओं के संशय का उच्छेद करती है, वह प्रतिभा है। (सूचू.१ पृ. २३३) पडिसेवणा-प्रतिसेवना। सम्माराहणविवरीया पडिगया वा सेवणा पडिसेवणा। सम्यक् आराधना के विपरीत जो आसेवना है, वह प्रतिसेवना है। (उचू. पृ. १४४) पडिहयपावकम्मा-पाप कर्मों को प्रतिहत करने वाला। पडिहयपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अट्ठ कम्माणि पत्तेयं जेण हयाणि सो पडिहयपावकम्मो। जिसने ज्ञानावरण आदि प्रत्येक कर्म का नाश कर दिया है, वह प्रतिहतपापकर्मा है। (दशजिचू. पृ. १५४) पणगसुहम-पनकसूक्ष्म। पणगसुहुमं णाम पंचवण्णो पणगो वासासु भूमिकट्ठ-उवगरणादिसु तद्दव्वसमवण्णो पणगसुहुमं। वर्षा में भूमि, काठ और उपकरण (वस्त्र) आदि पर उस द्रव्य के समान वर्ण वाली जो काई उत्पन्न होती है, वह पनक सूक्ष्म कहलाती है। (दशजिचू. पृ. २७८) पण्णापरीसह-प्रज्ञापरीषह । प्रज्ञापरीसहो नाम सो हि सति प्रज्ञाने तेण गव्वितो भवति तस्स प्रज्ञापरीषह। प्रज्ञा का गर्व करना प्रज्ञा परीषह है। (उचू. पृ. ८२) पतिण्णा-प्रतिज्ञा। साहणीयनिद्देसो पतिण्णा। साधनीय का निर्देश प्रतिज्ञा है। (दशअचू. पृ. २०) पम्भारा-प्राग्भारा (जीवन की एक अवस्था)। भाषिते चेष्टिते वा भारेण नत इव चिट्ठए पब्भारा। बोलते अथवा काम करते समय भार से नत व्यक्ति की भांति झुके रहने की अवस्था प्राग्भारा अवस्था है। (दचू.प. ३) परमदंसि-परमदर्शी। मोक्खो वा परं पस्सतीति परमदंसी। जो मोक्षदर्शी है, वह परमदर्शी है। (आचू. पृ. ११४) परिनिव्वुड-परिनिर्वृत। परिनिव्बुडा नाम जाइ-जरा-मरण- रोगादीहिं सव्वप्पगारेण वि विप्पमुक्क त्ति वुत्तं भवइ। जो जन्म, जरा, मरण तथा रोग आदि से मुक्त हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते हैं। (दशजिचू. पृ. ११७) • परिनिव्वुता समंता णिव्वुता सव्वप्पकारं घातिभवधारणकम्मपरिक्खते। जो घातिकर्मों का तथा भवधारणीय कर्मों का सम्पूर्ण क्षय कर देते हैं, वे परिनिर्वृत कहलाते (दशअचू. पृ. ६४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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