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________________ परिशिष्ट ७ : परिभाषाएं ६५३ भारियकम्मा–भारीकर्मा । जो पुण निक्कारणतो अत्तुक्कोसेण करेइ सो खलु भारियकम्मो। जो बिना प्रयोजन ही अति उत्कर्ष से कर्मबन्ध करता है, वह भारीकर्मा है। (दचू.प. १२) भावगणि-भावगणी। भावगणी गुणसमंतितो गुणोवपेतो अट्ठविधाए गणिसंपदाए। गुणों से तथा आठ गणि-संपदाओं से युक्त गणी भावगणी कहलाता है। (दचू.प. १६) भावचित्त-भावचित्त। अकुसलमणनिरोहो, कुसलाणं उदीरणं च जोगाणं। एयं तु भावचित्तं.... ॥ __ अकुशल योगों का निरोध तथा कुशल योगों की उदीरणा भावचित्त है। (दनि.३३/१) भावण्झवण-भावक्षपण। अट्ठविहं कम्मरयं, पोराणं जं खवेइ जोगेहिं। एवं भावज्झवणं, णेयव्वं आणुपुव्वीए॥ जो बंधे हुए चिरन्तन आठ प्रकार के कर्म-रजों को विनष्ट करता है, वह परम्परा से भावक्षपण कहलाता है। (उनि.११) भावतित्थ-भावतीर्थ । जतो णाणादिभावतो मिच्छत्त-ऽण्णाणा-ऽविरतिभवभावेहितो तारयति तेण भावतित्थं ति। अधवा क्रोध-लोभ-कम्मरय-दाह-तण्हाछेद-कम्ममलावणयणमेगंतियमच्चंतियं च तेण कज्जति त्ति अतो भावतित्थं । जो ज्ञान आदि की भावना से मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति आदि भावों से बचाता है तथा क्रोध, लोभ, कर्म, दाह, तृष्णा तथा कर्ममल का ऐकान्तिक और आत्यन्तिक अपनयन करता है, वह भावतीर्थ है। (सूचू.१ पृ. २) भावधुय-भावधुत। अहियासित्तुवसग्गे, दिव्वे माणुस्सए तिरिक्खे य। जो विहुणइ कम्माई, भावधुतं तं वियाणाहि ॥ जो देवता सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी तथा तिर्यञ्च सम्बन्धी उपसर्गों को सहन कर कर्मों का धुनन करता है, वह भावधुत है। (आनि.२५२) भावपुलाय-भावपुलाक। भावपुलाए जेण मूलगुण-उत्तरगुणपदेण पडिसेविएण निस्सारो संजमो भवति सो भावपुलाओ। मूलगुण और उत्तरगुण की प्रतिसेवना से जिसका संयम निस्सार हो जाता है, वह भावपुलाक (दशजिचू.पृ ३४६) भावपूया-भावपूजा। तित्थगरकेवलीणं, सिद्धायरियाण सव्वसाहूणं। जा किर कीरइ पूया, सा पूया भावतो होइ॥ तीर्थंकर केवली, सिद्ध, आचार्य और समग्र साधुओं की जो पूजा की जाती है, वह भाव पूजा है। (उनि.३०९) भावसत्थ-भावशस्त्र। भावसत्थं कायो वाया मणो य दुप्पणिहियाई। मन, वचन और काया का दुष्प्रणिधान भावशस्त्र है। (आचू.पृ. ८) भावसुत्त-भावसुप्त। भावसुप्तस्तु ज्ञानादिविरहितः अज्ञानी मिथ्यादृष्टिरचारित्री च। जो ज्ञान आदि से शून्य है-अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि और अचारित्री है, वह भावसुप्त है। (सूचू.१ पृ. ५१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.001929
Book TitleNiryukti Panchak Part 3
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1999
Total Pages856
LanguagePrakrit, Hind
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, G000, & G001
File Size15 MB
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